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श्री सूत्रकृताङ्ग सूत्रम् णीवारेव ण लीएज्जा, छिन्नसोए अणाविले । अणाइले सया दंते, संधिं पत्ते अणेलिसं ॥१२॥ छाया - नीवार इव न लीयेत, छिन्नस्रोता अनाविलः ।
अनाविलः सदादान्तः सन्धिं प्राप्तोऽनीदृशम् ॥ अनुवाद - छिन्न स्रोत-आश्रव निरोधी, अनाविल-राग, द्वेष के मद से शून्य साधु नीवार-चावल विशेष के लोभ से आकृष्ट सूअर आदि प्राणियों की तरह सांसारिक आकर्षणों में लीन न हो । वह सदा विषय भोग से अलिप्त रहता हुआ दमनशील-आत्म विजेता पुरुष अनीदृश-अप्रतिम या अनुपम भाव संधि को प्राप्त करता
__टीका - अथ किमित्यसावुपरतमैथुन इत्याशङ्कयाह-नीवार:-सूकरादीनां पशूनां वध्यस्थानप्रवेशनभूतो भक्ष्यविशेस्तत्कल्पमैतन्मैथुनं, यथा हि असौ पशुभवारेण प्रलोभ्य वध्यस्थानमभिनीय नानाप्रकारा वेदनाः प्राप्यते एवमसावप्यसुमान् नीवारकल्पेनानेन स्त्रीप्रङ्गेन वशीकृतो बहुप्रकारा यातनाः प्राप्नोति, अतो नीवारप्रायमेतन्मैथुनमवगम्य सतस्मिन् ज्ञाततत्त्वो नलीयेत'न स्त्रीप्रसङ्गंकुर्यात्, किंभूतःसन्नित्याह-छिन्नानि-अपनीतानिस्रोतांसि-संसारावतरणद्वाराणि यथा विषयमिन्द्रियप्रवर्तनानि प्राणातिपातादीनि वा आश्रवद्वाराणि येन स छिन्न स्रोताः, तथा 'अनाविलः' अकलुषो रागद्वेषासंपृक्ततया मलरहितोऽनाकुलो वा-विषयाप्रवृत्तेः स्वस्थचेता एवंभूतश्चानाविलोऽनाकुलो वा 'सदा' सर्वकालपि मिन्द्रियनोइन्द्रियाभ्यां दान्तो भवति, ईदृग्विधश्च कर्मविवरलक्षणं भावसंधिम 'अनीदृशम' अनन्यतुल्यं प्राप्तो भवतीति ॥१२॥ किञ्च -
____टीकार्थ – वह अब्रह्मचर्य से उपरत क्यों होता है-इसका स्पष्टीकरण करते हुए सूत्रकार व्यक्त करते हैं, नीवार-एक धान्य विशेष है जिसके दानों को बिखेरकर सूअर आदि प्राणियों को वध्यस्थान में प्रवृष्ट होने हेतु आकृष्ट किया जाता है । स्त्री प्रसंग भी वैसा ही है । जैसे सूअर आदि को चावल के दानों से लुभाकर वध्यस्थान में ले जाकर तरह-तरह की यातनाएं दी जाती है, उसी प्रकार नीवार सदृश स्त्री प्रसंग से आकृष्ट होकर तरह-तरह की पीड़ाएं पाता है । अतएव तत्त्ववेत्ता-सत्यदृष्टा पुरुष अब्रह्मचर्य को नीवार धान्य की ज्यों जानकर स्त्री प्रसंग में लीन-संलग्न न हो । कैसा होते हुए भी वह लीन न हो ? इसका समाधान करते हुए कहते हैं-विषयानुरूप इंद्रियों की प्रवृत्ति अथवा प्राणापिात-हिंसा आदि आश्रवद्वार संसार में अवतीर्ण होने-उतरने या आने के मार्ग है-स्रोत हैं । जिसने इनको छिन्न-नष्ट किया है वह छिन्न स्रोत कहा जाता है । जो राग एवं द्वेष से असंपृक्त होने के कारण मल रहित है, अनाकुल है अथवा विषयों में अप्रवृत्त होने के कारण स्वस्थचित्त है, ऐसा अनाविल-निर्मल अनाकुल-आकुलतारहित पुरुष इन्द्रिय एवं मन को सदा अपने नियन्त्रण में रखता है । वह कर्म विवरात्मक-कर्म विदारणमूलक अनुपम भावसंधि को प्राप्त होता है।
अणेलिसस्स खेयन्ने, ण विरुझिज केणइ । मणसा वयसा चेव, कायसा, चेव चक्खमं ॥१३॥ छाया - अनीदृशस्य खेदज्ञो न विरुध्येत केनाऽपि । मनसा वचसा चैव कायेन चैव चक्षुष्मान् ॥
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