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श्री सूत्रकृताङ्ग सूत्रम् । सदनुष्ठानेन जीवितनिरपेक्षा:संसारोदन्वतोऽन्तं-सर्वद्वन्द्वोपरमरूपं मोक्षाख्यमाप्नुवन्ति,सर्वदुःखविमोक्षलक्षणं मोक्षमप्राप्ता अपि कर्मणा-विशिष्टानुष्ठानेन मोक्षस्य संसुखीभूताघातिचतुष्टयक्षयक्रियया उत्पन्नदिव्यज्ञानाः शाश्वतपदस्याभिमुखीभूताः,क एवंभूता इत्याह-ये विपच्यमानतीर्थकृन्नामकर्माण:समासादितदिव्यज्ञाना'मार्ग'मोक्षमार्ग ज्ञानदर्शनचारित्ररूपम् 'अनुशासति' सत्त्वहिताय प्राणिनां प्रतिपादयन्ति स्वतश्चानुतिष्ठन्तीति ॥१०॥
. टीकार्थ - जो पुरुष असंयम जीवन-संयमरहित केवल प्राणधारण रूप जीवन को अनादृत-उपेक्षित कर उत्तम आचरण में संलग्न रहते हैं । वे ज्ञानावरणीय कर्मों का पर्यवसान-अन्त कर डालते हैं । अथवा भौतिक जीवन से निरपेक्ष-अपेक्षा रहित, आकांक्षा रहित होकर सद् आचरण में संलग्न रहते हैं । वे संसार सागर का अन्त कर देते हैं । उसके पार पहुंच जाते हैं जहां समस्त द्वन्द्व-दुःख प्रपंच उपरत हो जाते हैं-मिट जाते हैं। वे मोक्ष प्राप्त कर लेते हैं । जहां समस्त दुःख छूट जाते हैं, उस मोक्ष को जो प्राप्त नहीं कर पाते वे अपने विशिष्ट आचरण द्वारा मोक्ष के सम्मुखीन होते हैं । वे चार प्रकार के घाती कर्मों को क्षीण कर दिव्य ज्ञान प्राप्त कर लेते हैं । वे मोक्ष के अभिमुख होते हैं । ऐसे महापुरुष कौन हैं ? इसका स्पष्टीकरण करते हुए सूत्रकार कहते हैं-जिनका तीर्थंकर नाम कर्म विपच्यमान-विपक्व हो रहा है । जिन्हें दिव्य-उत्कृष्ट ज्ञान अधिगत हो गया है, जो जीवों के कल्याण के लिये सम्यक्ज्ञान, सम्यक्दर्शन तथा सम्यक् चारित्र मूलक मोक्षमार्ग का अनुशासन करते हैं-शिक्षा देते हैं । स्वयं उसका अनुष्ठान करते हैं-अनुसरण करते हैं । वे महापुरुष मोक्ष के अभिमुख-सम्मुख है।
अणुसासणं पुढो पाणी, वसुमं पूयणासु (स) ते । अणासए जते दंते, दढे आरयमेहुणे ॥११॥ छाया - अनुशासनं पृथक् प्राणिषु, वसुमान् पूजनास्वादकः ।
अनाशयो यतो दान्तो दृढ़ आरतमैथुनः ॥ अनुवाद - अनुशासन-धर्म का उपदेश पृथक् पृथक् प्राणियों में पृथक् पृथक् रूप में परिणत होता है । संयम परिपालक देवादि से प्राप्त पूजा सत्कार में रूचि रहित, इन्द्रिय विजेता साधना में सुदृढ़ दांत-दमनशील तथा मैथुन रहित पुरुष मोक्ष के अभिमुख या सन्मुख हैं।
टीका- अनुशासनप्रकारमधिकृत्याह-अनुशास्यन्ते-सन्मार्गेऽवतार्यन्ते सदसद्विवेकतःप्राणिनो येन तदनुशासनंधर्मदेशनया सन्मार्गावतारणं तत्पृथक् पृथक् भव्या-भव्यादिषु प्राणिसु क्षित्युदकवत् स्वाशयवशादनेकधा भवति यद्यपि च अभव्येषु तदनुशासनं न सम्यक् परिणमति तथापि सर्वोपायज्ञस्यापि न सर्वज्ञस्य दोषः, तेषामेव स्वभावपरिणतिरियं यया तद्वाक्यममृतभूतमेकान्तपथ्यं समस्तद्वन्द्वोपघातकारि न यथावत् परिणमति, तथा चोक्तम्
"सद्धर्मबीजवपनानघकौशलस्य, यल्लोक बान्धव ! तवापि खिलान्यभूवन् । तन्नाद्भुतं खगकुलेष्विह तामसेषु, सूर्यांशवो मधुकरीचरणावदाताः ॥१॥"
किंभूतोऽसावनुशासक इत्याह-वसु-द्रव्यं स च मोक्षं प्रति प्रवृत्तस्य संयमः तद्विद्यते यस्यासौ वसुमान्, पूजनं-देवादिकृतमशोकादिकमास्वादयति-उपभुङ्क्त इति पूजनास्वादकः, ननु चाधाकर्मणो देवादि कृतस्य समवसरणादेरूपभोगात्कथमसौ सत्संयमवानित्याशङ्कयाह-न विद्यते आशयः पूजाभिप्रायो यस्यासावनाशयः, यदिवा
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