Book Title: Sutrakritang Sutra
Author(s): Sudarshanlal Acharya, Priyadarshan Muni, Chhaganlal Shastri
Publisher: Shwetambar Sthanakvasi Jain Swadhyayi Sangh

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Page 632
________________ श्री सूत्रकृताङ्ग सूत्रम् - भृत-पूरित नहीं होता-इनसे वह सदा के लिये छूट जाता है । क्योंकि जन्म आदि उसी के होते हैं जिसके सैंकड़ों जन्मों के उपात्त-संचित कर्म विद्यमान होते हैं किंतु जिस आत्म पराक्रमी पुरुष ने अपने आश्रव द्वारों को अवरुद्ध कर दिया एवं जिसके पूर्वकृत कर्म भी अवशिष्ट नहीं है । उसका जन्म वृद्धावस्था तथा मरण संभावित नहीं है-कभी होता नहीं क्योंकि उसने अपने आश्रव द्वारों का निरोध कर दिया है । आश्रवों में स्त्री प्रसङ्ग प्रमुख है । अतः सूत्रकार उसे अधिकृत कर कहते हैं जैसे सतत् गतिशील-निरन्तर बहने वाली, अप्रतिस्खलित-कहीं नहीं रुकने वाली हवा दहनात्मक-अग्नि ज्वाला को अतिक्रांत कर जाती है-लांघ जाती है । उस द्वारा-अग्नि ज्वाला द्वारा वह पराभूत नहीं होती है । उसी प्रकार आत्म पराक्रमी पुरुष मनुष्य लोक में स्त्रियों को जिनमें हाव भाव आदि की विशेषताएं हैं जो बहुत ही प्रिय है, दुरतिक्रमणीय है, अतिक्रांत कर जाता है । उनके आधीन नहीं होता क्योंकि वह उनके स्वरूप को पहचानता है और वह यह भी जानता है कि स्त्रियों को जीतने का क्या फल है ? कहा गया है कि स्त्रियां स्मित-मंद मुस्कान, हाव-भाव, कटाक्ष आदि नाज, नखरे, मद, लजा, उल्टा मुख कर, अर्ध कटाक्ष-टेढ़ी निगाह से वीक्षण-देखना, वाणी, ईर्ष्या, कलह, लीला विनोद-इन द्वारा स्त्रियां परुषों को बांध लेती है-आकष्ट कर लेती है। स्त्रियों के लिये दो भाइयों में भेद पड जाता है-फट पड जाती है । सम्बन्धियों में भी भेद पड़ने में स्त्रियां ही कारण होती है तथा अनेक राजाओं ने कामनावश-अतृप्त वासनावश स्त्रियों हेतु युद्ध कर राजवंशों का विनाश किया है । इस प्रकार स्त्रियों का स्वरूप परिज्ञात कर आत्म पराक्रमी पुरुष उन्हें जीत लेता है। उन द्वारा जीता नहीं जाता यह वस्तु स्थिति है। यहां यह शंका उपस्थित की जाती है कि स्त्री. प्रसंगात्मक आश्रव द्वार का कथन कर उस द्वारा ही शेष आश्रव द्वारों को क्यों उपलक्षित कराया गया है । प्राणातिपात-हिंसादि आश्रव द्वारों को प्रतिपादित कर उन द्वारा बाकी के आश्रवों को क्यों नहीं संकेतित किया गया ? इसका समाधान यह है कि कतिपय दार्शनिक अंगनोपयोग-स्त्री सेवन को आश्रव द्वार नहीं मानते । उनका कथन है कि आमिस भोजन, मदिरापान और अब्रह्मचर्य सेवन ये तो प्राणियों की सहज प्रवृत्तियाँ है किन्तु इनकी निवृत्ति-इनसे हटना अत्यन्त फलदायक है । ऐसे मन्तव्य के खण्डन हेतु ही स्त्री प्रसङ्ग को आश्रव द्वार उपन्यस्त-प्रतिपादित किया गया है । उसके द्वारा शेष आश्रवों को उपलक्षित-संकेतित किया गया है । अथवा प्रथम तथा अंतिम तीर्थंकर के बीच के तीर्थंकरों का धर्म चतुर्याम मूलक रहा है किंतु भगवान महावीर के शासन में पंचयाम या पंच महाव्रत मूलक धर्म का अंगीकार है । इस अभिप्राय को व्यक्त करने हेतु यहां इसका-स्त्री प्रसंग का उल्लेख हुआ है । अथवा दूसरे व्रत सापवाद हैअपवाद युक्त है किंतु यह व्रत निरपवाद-अपवाद रहित है । इस तथ्य को प्रकट करने हेतु यहां स्त्री प्रसंग का-चौथे आश्रव द्वार का ग्रहण किया गया है । अथवा सभी व्रत तुल्य-समान हैं । यदि एक का खण्डनविराधना हो तो सभी की विराधना हो जाती है । अतः चाहे जिस किसी का निर्देश-ग्रहण किया जाय कोई दोष नहीं है। स्त्री सेवन रूप आश्रव के निरोध का फल प्रकट करने हेतु सूत्रकार कहते हैं। इथिओ जे ण सेवंति, आइमोक्खा हु ते जणा । ते जणा बंधणुम्मुक्का, · नावकंखंति जीवियं ॥९॥ छाया - स्त्रियो येन सेवन्ते, आदिमोक्षा हि ते जनाः । ते जनाः बन्धनोन्मुक्ताः नावकाङ्क्षन्ति जीवितम् ॥ 604

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