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श्री सूत्रकृताङ्ग सूत्रम्
टीका केषाञ्चित्सत्यामपि कर्मक्षयानन्तरं मोक्षावाप्तौ ( तथापि ) स्वतीर्थ निकारदर्शनतः पुनरपि संसाराभिगमनं भवती (तो) दमाशङ्कयाह-तस्याशेषक्रियारहितस्य योगप्रत्ययामावात्किमप्यकुर्वतोऽपि 'नवं' प्रत्यग्रं कर्म ज्ञानावरणीयादिकं 'नास्ति' न भवति, कारणाभावात्कार्याभाव इतिकृत्वा, कर्माभावे च कुतः संसाराभिगमनं ?, कर्मकार्यत्वात्संसारस्य, तस्य चोपरताशेष द्वन्द्वस्य स्वपरकल्पनाऽभावाद्रागद्वेषरहिततया स्वदर्शननिकाराभिनिवेशोऽपि न भवत्येव, स चैतद्गुणोपेतः कर्माष्ट प्रकारमपि कारणतस्तद्विपाकतश्च जानाति, नमनं नाम-कर्म निर्जरणं तच्च सम्यक् जानाति, यदिवा कर्म जानाति तन्नाम च अस्य चोपलक्षणार्थत्वाद्भेदांश्च प्रकृतिस्थित्यनुभावप्रदेशरूपान् सम्यगवबुध्यते, संभावनायां वा नामशब्दः, संभाव्यते चास्य भगवत: कर्मपरिज्ञानं विज्ञाय च कर्मबन्धं तत्संवरण निर्जरणोपायं चासौ 'महावीर : ' कर्मदारणसहिष्णुस्तत्करोति येन कृतेनास्मिन् संसारोदरे न पुनर्जायते तदभावाच्च नापि म्रियते, यदिवा - जात्या नारकोऽयं तिर्यग्योनिकोऽयमित्येवं न म्रियते न परिच्छिद्यते अनेन च कारणाभावात्संसाराभावाविर्भावनेन यत्कैश्चिदुच्यते
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"ज्ञानमप्रतिघं यस्य, वैराग्यं च जगत्पतेः । ऐश्वर्यं चैव धर्मञ्च सहसिद्धं चतुष्टयम् ॥२॥" इत्येतदपि व्युदस्तं भवति, संसारस्वरूपं विज्ञाय तदभावः क्रियते, न पुनः सांसिद्धिकः कश्चिदनादिसिद्धोऽस्ति, तत्प्रतिपादिकाया युक्तेरसंभवादिति ॥७॥
टीकार्थ कई मतवादियों का यह सिद्धान्त है कि कर्मों के क्षीण हो जाने के अनन्तर जिनको मोक्ष प्राप्त हो गया वे भी अपने तीर्थ-धर्म सम्प्रदाय का निकार - तिरस्कार देखते हैं तो पुनः संसार में अभिगमन करते हैं । इस शंका का समाधान करते हुए सूत्रकार कहते हैं कि वह पुरुष जो मोक्ष पा चुका है, सब प्रकार की क्रियाओं से वर्जित होता है । उसके योग मूलक प्रवृति रूप कारण का अभाव होता है । इसलिये वह कुछ भी कार्य नहीं करता । अतः उसके ज्ञानावरणीय आदि नये कर्म नहीं बंधते । कारण के अभाव कार्य नहीं होता । जब कर्मों का अभाव हो जाता है तो फिर संसार में अभिगमन कैसे हो सकता है ? क्योंकि कर्म ही संसार रूपी कार्य का कारण है । वास्तव में मोक्षगत जीव के समस्त द्वन्द्व-प्रपंच, सांसारिक झंझट उपरत-शांत हो जाते हैं । उसको अपनी तथा अन्य की कल्पना ही नहीं होती । वह राग द्वेष शून्य होता है । इसलिये अपने धर्म सम्प्रदाय के तिरस्कार की ओर उसका ध्यान ही नहीं जाता । वह इस प्रकार के गुणों से मंडित होता है । आठ प्रकार के कर्मों के कारण को उनके विपाक - फलनिष्पत्ति को तथा कर्म निर्जरण-कर्मों के नाश को भी भली भांति जानता है अथवा वह कर्मों को और नामों को भी जानता है । इससे यह उपलक्षित है वह कर्मों के भेद, प्रकृति, स्थिति, अनुभाव एवं प्रदेश- इन्हें भी सम्यक् जानता है अथवा नाम शब्द यहां संभावना के अर्थ में है । तद्नुसार उन भगवान द्वारा निरूपित कर्म विज्ञान, कर्म बंध तथा कर्मों के निरोध और नाश के उपाय को जानकर वह महावीर - आत्मयोद्धा कर्मों के विदीर्ण करने में नष्ट करने में सक्षम होता है । वैसा करने से वह फिर संसार में उत्पन्न नहीं होता उत्पन्न न होने से उसकी मृत्यु भी नहीं होती है । अथवा वह जाति द्वारा यह नारक है, यह त्रिर्यञ्क योनिगत है इस प्रकार परिछिन्न नहीं होता-जाना नहीं जाता। यहां कारण का अभाव होने से संसार का अभाव बतलाया गया है। इसलिये जो कहते हैं कि इस जगत पति -संसार के स्वामी परम पुरुष परमात्मा के अप्रतिघ- अविनश्वर ज्ञान, वैराग्य, ऐश्वर्य और धर्म ये चारों साथ ही सिद्ध हैंस्वभाव सिद्ध है । यह भी ऊपर निरूपण से व्युदस्त - खण्डित हो जाता है। क्योंकि संसार के स्वरूप को विज्ञात कर - भली भांति जानकर उसका अभाव किया जाता है । वह सांसिद्धिक- स्वयं सिद्ध नहीं होता । कोई अनादि सिद्ध पुरुष नहीं है । क्योंकि उसका प्रतिपादन करने वाली युक्ति प्राप्त नहीं होती ।
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