Book Title: Sutrakritang Sutra
Author(s): Sudarshanlal Acharya, Priyadarshan Muni, Chhaganlal Shastri
Publisher: Shwetambar Sthanakvasi Jain Swadhyayi Sangh

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Page 638
________________ श्री सूत्रकृताङ्ग सूत्रम् कर लेता है ? इसका समाधान करते हुए कहते हैं-वह निश्चय ही उसे प्राप्त कर लेता है । दृष्टान्त द्वारा इसे सिद्ध करते हुए बतलाते हैं-नाई का बाल काटने का उपकरण उस्तरा अन्त से-उनके अन्त में विद्यमान धार से चलता है वैसे ही रथ का पहिया भी अपने अन्तिम भाग से रास्ते पर प्रवृत्त होता है, चलता है । अभिप्राय यह है कि जैसे उस्तरे आदि का अन्त का हिस्सा ही अर्थ क्रियाकारी है-कार्य को साधता है, उसी प्रकार विषय-सांसारिक भोग तथा कषायात्मक मोहनीय कर्म का अन्त ही इस अपसद्-दु:खमय संसार का क्षय करता अंताणि धीरा सेवंति, तेण अंतकरा इह । इह माणुस्सए ठाणे, धम्ममाराहिउं णरा ॥१५॥ छाया - अन्तान् धीराः सेवन्ते तेनान्तकरा इह । इह मानुष्यके स्थाने, धर्ममाराधयितुं नराः ॥ अनुवाद - धीर-धर्मोद्यत पुरुष अन्तप्रान्त-बचे खुचे या अति सामान्य आहार का सेवन कर संसार का-आवागमन का अन्त करते हैं । इस मनुष्य लोक में धर्म की आराधना करते हुए जीव अपना लक्ष्य साध लेते हैं-संसार सागर को पार कर जाते हैं । टीका - अमुमेवार्थमाविर्भावयन्नाह-'अन्तान्' पर्यन्तान् विषयकषायतृष्णायास्तत्परिकर्मणार्थमुद्यानादीनामाहारस्य वाऽन्तप्रान्तादीनि धीराः' महासत्त्वा विषयसुखनिःस्पृहाः 'सेवन्ते' अभ्यस्यन्ति तेनचान्तप्रान्ताभ्यसनेन "अन्तकरा" संसारस्य तत्कारणस्य वा कर्मणः क्षयकारिणो भवन्ति, 'इहे' ति मनुष्यलोके, आर्यक्षेत्रे वा, न केवलं त एव तीर्थंकरादयः अन्यऽपीह मानुष्यलोके स्थान प्राप्ताः सम्यग्दर्शनज्ञानचारित्रात्मकं धर्ममाराध्य 'नराः' मनुष्याः कर्मभूमिगर्भब्युत्क्रान्तिजसंख्येयवर्षायुषः सन्तः सदनुष्ठानसामग्रीमवाप्य 'निष्ठितार्था' उपरतसर्वद्वन्द्वा भवति ॥१५॥ टीकार्थ - पूर्ववर्ती गाथा में व्यक्त अर्थ का आविर्भाव-स्पष्टीकरण करते हुए सूत्रकार कहते हैं-जो पुरुष सांसारिक भोगमय सुख, क्रोधादि कषाय तृष्णा के पर्यन्तवर्ती हैं-उनका अन्त कर चुके हैं अथवा उनकेविषयकषायादि के शोधन-परिष्करण हेतु उद्यान आदि के तथा आहार के अन्त प्रान्त का सेवन करते हैं, उस प्रान्त के अभ्यास-तितिक्षामय चर्या के कारण संसार का अथवा कर्म का जो उसका कारण है, नाश करते हैं । इस मनुष्य लोक में केवल तीर्थंकर आदि ही नहीं अपितु अन्य जीव भी सम्यक् दर्शन, सम्यग्ज्ञान, एवं सम्यक् चारित्र मूलक धर्म की आराधना कर कर्मभूमि में संख्येय वर्षों की आयु युक्त गर्भोत्पन्न जीवों के रूप में उत्पन्न होते हैं । उत्तम धर्मानुकूल आचरण की सामग्री प्राप्त कर तदनुकूल संयम आराधना पूर्वक सब द्वन्द्वों-जागतिक प्रपंचों या बन्धनों से विमुक्त हो जाते हैं । णिट्ठियट्ठा व देवा सुयं च मेयमेगेसिं, वा, उत्तरीए इयं सुयं । . अमणुस्सेसु णो तहा ॥१६॥ 610

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