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श्री सूत्रकृताङ्ग सूत्रम् 'जगत्' चराचरभूतग्रामाख्यं केवलालोकेन सर्वज्ञ प्रणीता गम परिज्ञानेन वा 'परिज्ञाय' सम्यगवबुध्य 'अस्मिन्' जगति मौनीन्द्रे वा धर्म भावनाः पञ्चविंशतिरूपा द्वादशप्रकारावा या अभिमतास्ता जीवितभावना' जीवसमाधानकारिणी: सत्संयमाङ्गतया मोक्षकारिणीर्भावयेदिति ॥४॥ सद्भावनाभावितस्य यद्भवति तद्दर्शयितुमाह -
टीकार्थ - इस प्रकार समग्र प्राणियों के साथ मैत्री भाव की अनुभूति हो, यह बताने हेतु सूत्रकार प्रतिपादित करते हैं-साधु भूत-स्थावर एवं जंगम सब प्रकार के जीवों के साथ विरोध न करे । प्राणियों के उपघात-हिंसा मूलक उपक्रम को जो विरोध का कारण है, दूर से ही परिवर्जित करे । प्राणियों के साथ विरोध नहीं करने वाला अनन्तरोक्त-जो पहले कहा गया है, वही तीर्थंकर का पवित्र-पावन स्वभाव है । अथवा यह सुसंयमी साधु का आचार है । इस प्रकार उत्तम संयमशील साधु अथवा तीर्थंकर चर, अचर-जंगम स्थावर जगत को केवलज्ञान द्वारा अथवा सर्वज्ञ प्ररूपित आगम ज्ञान द्वारा भली भांति परिज्ञात कर इस संसार में तीर्थंकर प्रणीत धर्म में स्वीकृत पच्चीस प्रकार की या बारह प्रकार की भावनाओं को, जो जीव के लिये समाधानप्रद, उत्तम संयम की अंगभूत तथा मोक्ष की कारणभूत है, भावित करे ।
सद्भावना-उत्तम भावना द्वारा भावित पुरुष की जो स्थिति होती है, उसका दिग्दर्शन कराने हेतु सूत्रकार कहते हैं -
भावणाजोगसुद्धप्या, जले णावा व आहिया । नावा व तीरसंपन्ना, सव्वदुक्खा तिउट्टइ ॥५॥ छाया - भावनायोगशुद्धात्मा, जले नौरिवाहितः ।
नौरिव तीर सम्पन्नः सर्वदुःखात् त्रुटयति ॥ अनुवाद - भावना योग द्वारा जिसकी आत्मा शुद्ध हो गई है, वह पुरुष जल में स्थित नौका से उपमित किया गया है । नौका जैसे तट को प्राप्त कर विश्रान्त होती है, उसी प्रकार वह समग्र दुःखों से मुक्त हो जाता
टीका - भावनाभिर्योगः-सम्यक् प्रणिधानलक्षणो भावनायोगस्तेन शुद्ध आत्मा-अन्तरात्मा यस्य स तथा, स च भावनायोग शुद्धात्मा सन् परित्यक्त संसार-स्वभावो नौरिव जलोपर्यवतिष्ठते संसारोदन्वत इति, नौर्यथाजलेऽनिमज्जनत्वेन प्रख्याता एवमसावपि संसारोदन्वति न निमज्जतीति । यथा चासौ निर्यामकाधिष्ठिताऽनुकूलवातेरिता समस्त द्वन्द्वापगमात्तीरमास्कन्दत्येवमायतचारित्रवान् जीव पोतः सदागमकर्णधाराधिष्ठितस्तपोमारुतवशात्सर्वदुः खात्मकात्संसारात् 'त्रुटयति' अपगच्छति मोक्षाख्यं तीरं सर्व द्वन्द्वोपरमरूपमवाप्नोतीति ॥५॥
टीकार्थ - भावनाओं द्वारा जो सम्यक् प्रणिधान-विशुद्ध परिणामों एवं भावों का उपपादन होता है, उसे भावनायोग कहा जाता है । उसके द्वारा जिसकी अन्तरात्मा शुद्ध है वह पुरुष संसार के स्वभाव-भौतिक सुखों की अभिप्सा का त्याग कर जल के ऊपर विद्यमान नौका की ज्यों संसार सागर के जल के ऊपर रहता है, जैसे नौका जल में कभी निमज्जित नहीं होती यह सुविदित है, उसी प्रकार वह पुरुष संसार रूपी सागर में निमज्जित नहीं होता-नहीं डूबता । जैसे निर्यामक-परिचालक द्वारा अधिष्ठित अनुकूल वायु द्वारा प्रेरित नौका समस्त द्वन्द्वों-विघ्नों के अपगत हो जाने पर तीर को पा लेती है, उसी प्रकार सच्चारित्र युक्त आत्मारूपी नौका
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