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श्री वीर्याध्ययनं . मजं विसयकसाया णिद्दा विगहा य पंचमी भणिया । एस पमायपमाओ निद्दिट्ठो वीयरागेहिं ॥१॥" छाया - मद्यं विषयाकषाया विकथा निद्रा चपंचमी भणिता । एष प्रमादप्रमादो निर्दिष्टो वीतरागैः ।।
तमेवम्भूतं प्रमादं कर्मोपादानभूतं कर्म आहुः' उक्तवन्तस्तीर्थकरादयः, अप्रमादं च तथाऽपरमकर्मकमाहुरिति, एतदुक्तं भवति-प्रमादोपहतस्य कर्म बध्यते, सकर्मणश्च यत्क्रियानुष्ठानं तद्वालवीर्य, तथाऽप्रमत्तस्य कर्माभावो भवति, एवंविधस्य च पण्डितवीर्यं भवति, एतच्च बालवीर्यं पण्डितवीर्यमिति वा प्रमादवतः सकर्मणो बालवीर्यमप्रमत्तस्याकर्मणः पण्डितवीर्यमित्येव मायोज्यं, 'तब्भावादेसओ वावी' ति तस्य-बालवीर्यस्य कर्मणश्च पण्डितवीर्यस्य वा भावः सत्ता स तद्भावस्तेनाऽऽदेशो-व्यपदेशः ततः, तद्यथा-बालवीर्यमभव्यानामनादि अपर्यवसितं भव्यानामनादि सपर्यवसितं वा सादिसपर्यववेति, पण्डितवीर्यं तु सादिसपर्यवसितमेवेति ॥३॥ तत्र प्रमादोपहतस्य सकर्मणो यद्वालवीर्यं तदर्शयितु माह -
टीकार्थ - प्राणी जिसके द्वारा सत् अनुष्ठान से-उत्तम आचार से रहित होते हैं, उसे प्रमाद कहा जाता है, वह मद्य आदि है । कहा है-वीतराग तीर्थंकरों ने मद्य, विषय, कषाय, नींद तथा विकथा इन पाँचों को प्रमाद कहा है । वह-प्रमाद कर्मों का उपादान भूत का कारण रूप है । अप्रमाद को अकर्म कहा गया है । प्रमाद को कर्म तथा अप्रमाद को अकर्म कहे जाने का यह अभिप्राय है कि प्रमादोहत-प्रमाद के कारण बेभान जीव कर्म बंध करता है। उसे सकर्म-कर्मसहित जीव का जो क्रियात्मक अनुष्ठान होता है, उसे बालवीर्य कहा जाता है। जो पुरुष अप्रमत्त-प्रमाद रहित होता है, उसके कर्त्तव्य में कर्म का अभाव है । अतः उस पुरुष का कार्य.पंडित वीर्य कहा जाता है । यों जो पुरुष प्रमादयुक्त और कर्मयुक्त है, उसका वीर्य बालवीर्य तथा जो प्रमाद शून्य एवं कर्मरहित उसका वीर्य पण्डित वीर्य है, यह जानना चाहिए । बालवीर्य एवं पण्डित वीर्य इन दोनों की सत्ता या सद्भाव के कारण-दोनों के होने से क्रमशः बाल एवं पण्डित का व्यवहार होता है। इनमें उन जीवों का जो अभव्य है, बालवीर्य अनादि आदि रहित तथा अनन्त-अन्तरहित होता है, तथा भव्य जीवों का अनादि-आदिरहित तथा शांत-अन्तसहित होता है, तथा सादि-आदि सहित एवं शान्त-अन्तसहित भी होता है, किन्तु पण्डित वीर्य, सादि-आदि सहित तथा शांत अन्त सहित ही होता है । प्रमादोपहत-प्रमाद से मूढ सकर्मा-कर्मसहित पुरुष का जो बाल वीर्य होता है उसका दिग्दर्शन कराने हेतु सूत्रकार प्रतिपादित करते हैं
सत्थमेगे तु सिक्खंता, अतिवायाय पाणिणं । एगे मंते अहिजंति, पाणभूय विहेडिणो ॥४॥ छाया - शास्त्रमेके तु शिक्षन्ते, ऽतिपाताय प्राणिनाम् ।
___एके मन्त्रानधीयते प्राणभूतविहेठकान् ॥
अनुवाद - कई अज्ञानी जीव प्राणियों का विनाश करने हेतु शस्त्र विद्या का अभ्यास करते हैं तथा कई प्राणियों के विध्वसंक मन्त्रों का अध्ययन-साधन करते हैं ।
टीका - शस्त्रं-खड्गादिप्रहरणं शास्त्रं वा धनुर्वेदायुर्वेदिकं प्राण्युपमईकारि तत् सुष्ठुसातगौरव गृद्धा 'एके' केचन 'शिक्षन्ते' उद्यमेन गृह्णन्ति, तच्च शिक्षितं सत् 'प्राणिनां' जन्तूनां विनाशाय भवति, तथाहि-तत्रोपदिश्यते, एवं विधमालीढप्रत्यालीढादिभिर्जीवे व्यापादयितव्ये स्थानं विधेयं, तदुक्तम् -
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