________________
____श्री समवसरणाध्ययनं 'यताः' संयता पापानुष्ठानान्निवृत्ता विविधंसंयमानुष्ठानं प्रति 'प्रणमन्ति' प्रह्वीभवन्ति । के ते ?-'धीरा' महापुरुषा इति । तथैके केचन हेयोपादेयं विज्ञायापिशब्दात्सम्यक्परिज्ञाय तदेव नि:शङ्कं यज्जिनैः प्रवेदितमित्येवंकृत निश्चयाः कर्मणि विदारयितव्ये वीरा भवन्ति, यदिवा परीषहोपसर्गानीकविजयाद्वीरा इति पाठान्तरं वा 'विण्णत्तिवीरा य भवन्ति एगे' 'एके' के चन गुरुकर्माणोऽल्पसत्त्वाः विज्ञप्ति:-ज्ञानं, तन्मात्रेणैव वीरा नानुष्ठानेन, न च ज्ञानादेवाभिलषितार्थावाप्तिरूपजायते, तथाहि ---
"अधीत्य शास्त्राणि भवन्ति मूर्खा, यस्तु क्रियावान पुरुष विद्वान ।
सं चिन्त्यतामौषधमातुरं हि, न ज्ञानमात्रेण करोत्यरोगम् ॥१॥" ॥१७॥ टीकार्थ - जो पापपूर्ण कृत्यों से घृणा करते हैं तथा ज्ञेय पदार्थों को जानते हैं, वे प्रत्यक्ष दृष्टा तथा परोक्ष दृष्टा पुरुष प्राणियों के उपमर्दन-हिंसा की शंका से-भय से न स्वयं पापाचरण करते हैं, न अन्यों से करवाते हैं और न पापचरण में उद्यत जनों का अनुमोदन ही करते हैं । वे न स्वयं मृषावाद-असत्य भाषण करते हैं, न औरों से वैसा करवाते हैं । तथा न वैसा करने वालों का अनुमोदन ही करते हैं । इसी प्रकार अन्यान्य महाव्रतों में भी इसी क्रम को जोड़ना चाहिये । वे इस प्रकार सर्वदा संयत-पापनुष्ठान से निवृत्त रहते हुए विविध रूप में धर्माराधनामूलक उपक्रमों में लीन रहते हैं । वे कौन हैं ? इस प्रश्न का समाधान करते हुए कहते हैंवे धीर-धैर्यशील महापुरुष हैं तथा कई ऐसे सत्पुरुष हैं जो हेय-त्यागने योग्य तथा उपादेय-ग्रहण करने योग्य वस्तु को जानकर-यहां प्रयुक्त अपि शब्द के संकेतानुसार सम्यक परिज्ञात कर, जो तीर्थंकरों ने प्रतिपादित किया है, वहीं नि:शंक-शंका विवर्जित मोक्ष मार्ग है, यह निश्चय कर कर्मों को विदीर्ण करने में-नष्ट करने में पराक्रमशील होतेहैं अथवा परीषहों और उपसर्गों को जीत लेते हैं । इस प्रकार वे वीर-शौर्यशाली हैं । यहां 'विण्णत्ति वीरा य भवंतिएगे' ऐसा पाठ भी प्राप्त होता है । इसका अभिप्राय यह है कि कोई गुरु कर्मा-भारी कर्म युक्त अल्पपराक्रमयुक्त जीव विज्ञप्तिमात्र से-ज्ञान मात्र से अपने आप को वीर कहते हैं । अनुष्ठान या आचरण से नहीं किन्तु मात्र ज्ञान से अभिप्सित प्रयोजन की उपलब्धि नहीं होती । अतएव कहा है-शास्त्रों का अध्ययन करके भी कई लोग मूर्ख-विवेकशून्य रह जाते हैं । वास्तव में विद्वान् वही है जो शास्त्रों में बताई गई क्रिया या आचार का अनुष्ठानअनुसरण करता है क्योंकि औषधि का सम्यक् चिन्तन करने मात्र से रुग्णता निवृत्त नहीं हो जाती-मिट नहीं जाती ।
डहरे य पाणे वुड्ढे य पाणे, ते आत्तओ पासइ सव्वलोए । उव्वेहती लोगमिणं महंतं, बुद्धेऽपमत्तेसु परिव्वएजा ॥१८॥ छाया - दहराश्च प्राणाः वृद्धाश्च प्राणा स्तानात्मवत् पश्यति सर्वलोके ।
उत्प्रेक्षते लोकमिमं महान्तं बुद्धोऽप्रमत्तेषु परिव्रजेत् । अनुवाद - इस संसार में छोटी छोटी कायावाले प्राणी हैं और बड़ी बड़ी काया के प्राणी भी हैं । इन सभी को अपने सदृश जानकर बुद्ध-तत्व दृष्टा पुरुष संयम परिपालक साधुओं की सन्निधि में प्रव्रज्या स्वीकार करे ।
___टीका - कानि पुनस्तानि भूतानि ? यच्छङ्कयाऽऽरम्भंजुगुप्सन्ति सन्त इत्येतदाशङ्कयाह-ये केचन 'डहरे' नि लघवः कुन्थ्वादयः सूक्ष्मा वा, ते सर्वेऽपि प्राणा:-प्राणिनः ये च वृद्धाः-बादरशरीरिणस्तान्सर्वानप्यात्मतुल्यान्
(523)