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- श्री सूत्रकृताङ्ग सूत्रम् । लक्षण की निवृत्ति हेतु ऐसा करे । वह सदा ग्रहण शिक्षा तथा आसेवना शिक्षा से युक्त होता हुआ धर्म देशना में यत्न शील रहे । वैसा यत्न करता हुआ, जो जिस कार्य का समय है अथवा अध्ययन का समय है उसका उल्लङ्घन न करे । वह अध्ययन एवं कर्त्तव्य की मर्यादा को न लांघे किंतु उत्तम आचरण में संलग्न रहे । परस्पर बाधा न आये । इसे ध्यान में रखते हुए क्रियाएं करे । वह अवसर के अनुरूप सब क्रियाएं करे । जो साधु ऐसा है अर्थात काल या समय के अनुसार बोलता है, या आचरण करता है वह सम्यक दृषि अर्थात् वह पदार्थों के सत्य स्वरूप में श्रद्धा रखता है वह धर्म देशना या व्याख्यान देता हुआ सम्यकदर्शन को दूषित न करे । इसका यह अभिप्राय है कि पुरुष विशेष को जानकर उसकी योग्यता देखकर अपसिद्धांत का परिहार कर जैसे जैसे सुनने वाले का सम्यक्त्व स्थिर बने ऐसा उपदेश करे, किंतु ऐसा उपदेश न करे जिससे सुनने वाले के मन में शंका पैदा हो जाय उसका सम्यक्त्व दूषित हो जाय । जो इस प्रकार प्ररूपणा करना-उपदेश देना जानता है वह सम्यक्दर्शन ज्ञान चारित्र मूलक अथवा सर्वज्ञ प्रतिपादित सम्यक्चित्त व्यवस्था रूप समाधि को भलीभांति जानता है।
अलूसए णो पच्छन्नभासी, णो सुत्तमत्थं च करेज ताई। सत्थारभत्ती अणुवीइ वायं, सुयं च सम्म पडिवाययंति ॥२६॥ छाया - अलूषको नो प्रच्छन्नभाषी, न सूत्रमर्थञ्च कुर्यात् त्रायी ।
शास्तृभक्त्याऽनुविचिन्त्यवाद, श्रुतञ्च सम्यक् प्रतिपादयेत् ॥ अनुवाद - साधु आगम के अर्थ को लूसित-दोषयुक्त न करे । शास्त्र-सिद्धान्त को प्रच्छन्न न रखेछिपावे नहीं । त्रायी-प्राणियों का त्राता-रक्षक साधु सूत्र एवं अर्थ को अन्यथा न करे । उनके विपरीत वचन न बोले । शास्ता-शिक्षा देने वाले गुरु की भक्ति का अनुचिन्तन करता हुआ वह विचार पूर्वक वचन कहे । गुरु से जैसा श्रवण किया वैसा ही वह सम्यक् प्रतिपादन करे-विवेचन करे ।
टीका-किंचान्यत्-'अलूसए' इत्यादि,सर्वज्ञोक्तमागमं कथयन् ‘नो लूषयेत्' नान्यथाऽपसिद्धान्तव्याख्यानेन दूषयेत्, तथा 'न प्रच्छन्नभाषी भवेत्' सिद्धान्तार्थमविरुद्धमवदातं सार्वजनीनं तत्प्रछन्नभाषणेन न गोपयेत्, यदिवा प्रच्छन्नं वाऽर्थमपरिणताय न भाषेत, तद्धि सिद्धान्तरहस्यमपरिणत शिष्यविध्वंसनेन दोषायैव संपद्यते, तथा चोक्तम्
"अप्रशान्तमतौ शास्त्रसद्भावप्रतिपादनम् । दोषायाभिनवोदीणे, शमनीयमिव ज्वरे ॥१॥"
इत्यादि, न च सूत्रमन्यत् एवमतिविकल्पनतः स्वपरत्रायी कुर्वीतान्यथा वा सूत्रं तदर्थं वा संसारात्त्रायीत्राणशीलो जन्तूनां न विदधीत, किमित्यन्यथा सूत्रं न कर्त्तव्यमित्याह-परहितैकरतः शास्ता तस्मिन्. शास्तरिया व्यवस्थिता भक्तिः-बहुमानस्तया तद्भक्त्या अनुविचिन्त्यममानेनोक्तेन न कदाचिदागमबाधा स्यादित्येवं पर्यालोच्य वादं वदेत्, तथा यच्छ्रुतमाचार्यदिभ्यः सकाशात्तन्तथैव सम्यक्त्वाराधनामनुवर्तमानोऽन्येभ्य ऋणमोक्षं प्रतिपद्यमानः 'प्रतिपादयेत्' प्ररूपयेन्न सुखशीलतां मन्यमानो यथाकथंचित्तिष्ठेदिति ॥२६॥
टीकार्थ - साधु सर्वज्ञ प्रतिपादित आगम का विवचेन करता हुआ अप सिद्धान्त-विपरीत सिद्धान्त का निरूपण कर आगम को दूषित न बनाये-दोषयुक्त न करे । जो सिद्धान्त शास्त्र से अविरुद्ध-अनुकूल, अवदात्तनिर्मल एवं सार्वजनीन है उसे प्रछन्न भाषण-अस्पष्ट प्रतिपादन द्वारा न छिपावे अथवा जो सिद्धांत प्रच्छन्न-गोपनीय
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