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आदाननामक अध्ययन टीकार्थ - जो पुरुष चतुर्विध घातिकर्मों का अन्तकृत-विनाशक है वह इस प्रकार का होता है-यह सूत्रकार प्रतिपादित करते हैं । चित्त की विप्लुति-अस्थिरता या संशयात्मक ज्ञान को विचिकित्सा कहा जाता है। उसके आवरक-उसे ढंकने वाले कर्मों को क्षीण करने के कारण जो पुरुष संशय का अन्त-नाश कर देता है, वह संशय, विपर्यय तथा मिथ्याज्ञान को अविपरीत-यथावत रूप में जानने के कारण इनके अन्त में वर्तमान होता है-निवास करता है । इसका तात्पर्य यह है कि यहां दर्शनावरणीय कर्म के क्षय का प्रतिपादन किया गया है । इसलिये दर्शन ज्ञान से भिन्न है यह प्रकट होता है । जिनका यह मन्तव्य है कि सर्वज्ञ का एक ही ज्ञान अचिन्त्य शक्ति से युक्त होता है । अतः पदार्थ के सामान्य तथा विशेष दोनों भावों का वह परिच्छेदक-निश्चायक है । यहां दर्शनावरणीय के पृथक् क्षीण होने का प्रतिपादन करने से उक्त मत खण्डित हो जाता है-निरस्त हो जाता है, यह जानना चाहिये । जो पुरुष घाति कर्मों का नाश कर चुका है, संशय आदि का उल्लंघन कर चुका है वह अनन्य सदृश-अप्रतिम-जिसके सदृश दूसरा कोई नहीं, पदार्थों का ज्ञाता है । वस्तुगत सामान्य और विशेष दोनों ही भावों का परिज्ञाता और कोई नहीं है । कहने का अभिप्राय यह है कि उस पुरुष का ज्ञान-अन्य जनों के ज्ञान के सदृश नहीं है । इसलिये मीमांसकों ने जो यह कहा है कि सर्वज्ञ में सब पदार्थों का परिच्छेदकत्व-सब पदार्थों का ज्ञान अभ्यपगत है-विद्यमान है तो उसे स्पर्श रूप रस गंध वर्ण शब्द का परिच्छेद-ज्ञान बने रहने से अनभिमत-अस्वीकृत वस्तु के रसास्वाद का ज्ञान भी होना चाहिये । यह इस कथन से निरस्त हो जाता है-यह जानना चाहिये । उन्होंने ऐसा कहा है । सामान्य रूप से सर्वज्ञ के सिद्ध हो जाने पर भी अहँन् ही सर्वज्ञ है, यह सिद्ध करने में कोई हेतु प्राप्त नहीं है । इसलिये इस कथन में सम्प्रत्यय-प्रतीति घटित नहीं होती । उन्होंने और भी कहा है-यदि अर्हत् सर्वज्ञ है, बुद्ध सर्वज्ञ नहीं, इसमें क्या प्रमाण है । यदि अर्हत् और बुद्ध दोनों ही सर्वज्ञ हैं तो उन दोनों के सिद्धान्तों में अन्तर क्यों हैं ? इस आरोप का परिहार करते हुए कहते हैं-अर्हत् जिस प्रकार अनन्य सदृश पदार्थों का परिच्छेदक है-आख्याता या प्रतिपादक है, वैसा वह बुद्ध नहीं है क्योंकि वहां-बौद्ध आदि दर्शनों में द्रव्य एवं पर्याय दोनों का अभ्युपगम स्वीकार नहीं है । शाक्यमुनिबुद्ध सब पदार्थों को क्षणिक मानते हैं तदनुसार वे केवल पर्याय को ही स्वीकार करते हैं । द्रव्य को स्वीकार नहीं करते परन्तु द्रव्य के बिना निर्बीजत्व होता है-द्रव्य पर्यायों के बीजरूप है, उनके न होने से पर्याय भी नहीं हो सकते । अतः जो पर्यायों को मानते हैं उन्हें पर्यायों के आधारभूत परिणमनशील द्रव्य को अवश्य स्वीकार करना चाहिये । बुद्ध ऐसा स्वीकार नहीं करते । इसलिये वे सर्वज्ञ नहीं है। कपिल अप्रच्युत-विनाश रहित अनुत्पन्नउत्पत्ति रहित, स्थिर-एकस्वभाव-एक स्वभाव में स्थित द्रव्य को ही स्वीकार करते हैं । प्रत्यक्ष रूप में अनुभूत होने वाले अर्थ क्रिया समर्थ पर्यायों को नहीं मानते किंतु निष्पर्याय-पर्यायरहित द्रव्य हो नहीं सकता । अतः कपिल भी सर्वज्ञ नहीं है । दूध तथा पानी की ज्यों द्रव्य एवं पर्याय अभिन्न हैं । उन्हें,सर्वथा भिन्न मानने वाले उलूक का भी सर्वज्ञत्व सिद्ध नहीं होता। यों असर्वज्ञ होने के कारण अन्य मतवादियों में कोई भी अनन्य सदृशअप्रतिम अर्हत् के तुल्य उभयविद-द्रव्य पर्याययुक्त पदार्थ का आख्याता-वक्ता या प्रतिपादक नहीं है । अत: एकमात्र अर्हत् ही अतीत अनागत तथा वर्तमान-त्रिकाल पदार्थों के सुआख्याता-सुष्टुरूप में, यथावस्थित रूप में विवेचक है, ऐसा सिद्ध होता है ।
तहिं तहिं सुयक्खायं, से य सच्चे सुआहिए। सया सच्चेण संपन्ने, मित्तिं भूएहिँ कप्पए ॥३॥
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