Book Title: Sutrakritang Sutra
Author(s): Sudarshanlal Acharya, Priyadarshan Muni, Chhaganlal Shastri
Publisher: Shwetambar Sthanakvasi Jain Swadhyayi Sangh

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Page 618
________________ । श्री सूत्रकृताङ्ग सूत्रम् ज्यों शून्य हो इत्यादि कर्कश-कठोर वाक्यों द्वारा उसकी भर्त्सना न करे । जिस प्रकार वह समझ सके वैसे समीचीन रूप में उसे समझावे, क्रुद्धमुख, हाथ, ओष्ठ तथा नेत्र विकार-इन अंगों द्वारा अपमान पूर्ण संकेत करता । हुआ वह साधु उस व्यक्ति के मन में पीड़ा उत्पादित न करे । उस प्राश्निक-प्रश्न करने वाले की भाषा यदि अपशब्द आदि के दोष से दूषित हों तो मूर्ख, असंस्कृतमति, तुम्हें धिक्कार है, संस्कारहीन तथा पहले और. आगे के संदर्भ में शून्य, तुम्हारे इस कथन से क्या लाभ है इत्यादि द्वारा उसका तिरस्कार न करे । तथा असम्बद्ध वक्तृता का दोष लगाकर प्रश्नकर्ता की विडम्बना न करे । तथा जो अर्थ स्तोक छोटा या संक्षिप्त है उसे आक की लकड़ी कहने के बदले 'अर्क विटपिकाष्ठिका' जैसे प्रयोग सदृश जटिल शब्दाडम्बर मय लम्बे लम्बे वाक्यों द्वारा साध कथन न करे । जो व्याख्यान-विवेचन अल्पकालीन हो उसे व्याकरण, तर्क आदि के प्रवेशन द्वारा, प्राप्ति अनप्राप्ति द्वारा दीर्घकालीक-लम्बा न बनाये । कहा गया है-वैसा ही अर्थ वक्तव्य है-कहने योग्य है जो थोड़े अक्षरों में कहा जा सके । लो अर्थ थोड़ा होते हुए भी बहुत से अक्षरों द्वारा प्रतिपादित किया जाता है, वह निस्सार सार विवर्जित होता है । कोई सूत्र अल्पाक्षर-अल्प अक्षर युक्त तथा कोई अल्पार्थक-अल्प अर्थयुक्त होता है, इस संबंध में एक चौभंगी है, उसमें जो अर्थ अल्प अक्षरयुक्त तथा महान् अर्थयुक्त होता है, वही प्रशंसनीय है। समालवेजा पडिपुन्नभासी, निसामिया समियाअट्ठदंसी । . आणाइ सुद्धं वयणं भिउंजे, अभिसंधए पावविवेग भिक्खू ॥२४॥ छाया - समालपेत्प्रतिपूर्णभाषी, निशम्य सम्यगर्थदर्शी । आज्ञाशुद्धं वचन मभियुञ्जीत, अभिसन्धयेत्पापविवेकं भिक्षुः ॥ अनुवाद - जो अर्थ थोड़े शब्दों में कहे जाने योग्य नहीं है, साधु उसे विस्तीर्ण शब्दों में समझाये। वह गुरु से तत्त्व का श्रवण कर उसे भली भांति स्वायत्त कर शुद्ध वचन का प्रयोग करे । वह पाप का विवेक रखता हुआ ऐसा वचन बोले जो दोष रहित हो । टीका - अपिच-यत्पुनरतिविषमत्वादल्पाक्षरैर्न सम्यगवबुध्यते तत्सम्यग्-शोभनेन प्रकारेण समन्तात्पर्यायशब्दोच्चारणतो भावार्थकथनतश्चालपेद्-भाषेत समालपेत्, नाल्पैरेवाक्षरैरुक्त्वा कृतार्थो भवेद्, अपितु ज्ञेयगहनार्थभाषणे सद्धेतुयुक्त्यादिभिः श्रोतारमपेक्ष्य प्रतिपूर्णभाषी स्याद्-अस्खलितामिलिताहीनाक्षरार्थवादी भवेदिति। तथाऽऽचार्यादेः शकाशाद्यथावदर्थं श्रुत्वा निशम्य अवगम्य च सम्यगयथावस्थितमर्थं यथा गुरु सकाशादवधारितमर्थप्रतिपाद्यं द्रष्टुं शीलमस्य स भवति सम्यगर्थदर्शी, स एवंभूतः संस्तीर्थकराज्ञया-सर्वज्ञप्रणीतागमानुसारेण 'शुद्धम्' अवदातं पूर्वापराविरुद्धं निरवद्यं वचनमभियुञ्जीतोत्सर्गविषये सति उत्सर्गमपवाद विषये चापवादं तथा स्वपरसमययोर्यथास्वं : वचनमभिवदेत् । एवं चाभियुञ्जन् भिक्षुः पापविवेकं लाभसत्कारादिनिरपेक्षतया काङ्खमाणो निर्दोषं वचनमभिसन्धयेदिति ॥२४॥ पुनरपि भाषा विधिमधिकृत्याह - टीकार्थ - जो तत्त्व अत्यन्त विषम-दिलष्ट होने के कारण थोड़े अक्षरों द्वारा भलीभांति समझाया नहीं जा सकता, उसे शोभन प्रकार से भलीभांति पर्यायवाची शब्दों का उच्चारण करते हुए अथवा उसका भावार्थ बतलाते हुए समझाये । ऐसे अर्थ को अल्पाक्षरों में आख्यात कर साधु अपने को कृतकृत्य न माने ऐसा न समझे 590

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