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श्री सूत्रकृताङ्ग सूत्रम् अनुवाद - सूत्र एवं अर्थ के संबंध में स्वयं को शंका न भी हो तो वह संकित वत वचन कहे । धर्म कथा या व्याख्यान आदि के अवसर पर वह विभज्यवाद-स्याद्वाद के आधार पर वचन प्रयोग करे । धर्म समुत्थित-धर्माचरण में संप्रवृत्त साधुओं के साथ विहरणशील होता हुआ वह भाषाद्वय-सत्यभाषा तथा असत्य विरहित, अमिथ्या (व्यवहार) भाषा का प्रयोग करे । विभव सम्पन्न एवं विभवहीन दोनों को समान रूप में धर्म का उपदेश दे ।
टीका - साम्प्रतं व्याख्यानविधिमधिकृत्याह-'भिक्षुः' साधुर्व्याख्यानं कुर्वन्नर्वाग्दर्शित्वादर्थनिर्णय प्रति अशंकित-भावोऽपि 'शङ्केत' औद्धत्यं परिहरन्नहमेवार्थस्य वेत्ता नापरः कश्चिदित्येवं गर्वं न कुर्वीत किंतु विषयमर्थं प्ररुपयन् साशङ्कमेव कथयेद्, यदिवा परिस्फुटमप्यशंङ्कितभावमप्यर्थं न तथा कथयेत् यथा परः शंकेत, तथा विभज्यवादं-पृथगर्थनिर्णयवादं व्यागृणीयात् यदिवा विभज्यवादःस्याद्वादस्तं सर्वत्रास्खलितं लोकव्यवहाराविसंवादितया सर्वव्यापिनं स्वानुभवसिद्धं वदेद्, अथवा सम्यगर्थान् विभज्य-पृथक्कृत्वा तद्वादं वदेत् तद्यथा नित्यवादंद्रव्यार्थतया पर्यायार्थत्वनित्यवादं वदेत्, तथा स्वद्रव्यक्षेत्रकालभावैः सर्वेऽपि पदार्थाः सन्ति परद्रव्यादिभिस्तु न सन्ति, तथा चोक्तम् -
"सदैव सर्वं को नेच्छेत्स्वरूपादिचतुष्टयात् ? । असदेव विपर्यासान्नचेन्न व्यवतिष्ठते ॥१॥"
इत्यादिकं विभज्यवादं वदेदिति । विभज्यवादमपि भाषाद्वितयेनैव ब्रूयादित्याह-भाषयोः आद्यचरमयोः सत्यासत्यामृषयोर्द्विकं भाषाद्विकं तद्भाषाद्वयं क्कचित्पृष्टोऽपृष्टो वा धर्मकथावसरेऽन्यदा वा सदा वा 'व्यागृणीयात्' भाषेत, किं भूतः सन् ? सम्यक् सत्संयमानुष्ठाने नोत्थिताः समुत्थिता:-सत्साधव उद्युक्त विहारिणो न पुनरुदायिनृपमारकवत्कृत्रिमास्तैः सम्यगुत्थितैः सह विहरन् चक्रवर्तिद्रमकयोः समतया रागद्वेषरहितो वा शोभनप्रज्ञो भाषाद्वयोपेतः सम्यग्धर्मः व्यागृणीयादिति ॥२२॥
टीकार्थ - सूत्रकार अब व्याख्यान विधि के संदर्भ में प्रतिपादित करते हैं-धर्म का व्याख्यान-विवेचन करता हुआ साधु अर्थ का निर्णय करने में नि:शंक होता हुआ भी अर्वाक्दर्शिता-स्थूलदर्शिता के कारण शंकितवत् वचन बोले । वह अपने औद्धत्य-उदण्डता का परिहार करता हुआ यह घमंड न करे कि मैं ही इस तत्त्व का वेत्ता-विज्ञ हूं, अन्य दूसरा वैसा नहीं है । वह विषम-कठिन अर्थ की प्ररूपणा करता हुआ, शंका के साथ ही कथन करे अथवा ज्यों वस्तु अत्यन्त पारेष्फुट-साफ हो जिसमें किसी शंका की गुंजाइश न हो, साधु उसे इस प्रकार न कहे जिससे श्रवण करने वाले के मन में शंका पैदा हो, पदार्थों को विभज्यवाद पूर्वक कहे-पृथक् पृथक् विवेचन के साथ आख्यात करे । विभज्यवाद का तात्पर्य स्याद्वाद से है स्याद्वाद कहीं भी स्खलितव्याहत नहीं होता वह लोक व्यवहार से अविसंवादिता-अनुकूलता लिये हुए हैं । इसलिये वह सर्वव्यापी है तथा स्वानुभव सिद्ध है । साधु उसका आश्रय लेकर संभाषण करे अथवा पदार्थों को सम्यक्-भलीभांति से पृथक् पृथक् व्याख्यात कर बताये । जैसे वह द्रव्यार्थिक नय की अपेक्षा से नित्यवाद की व्याख्या करे तथा पर्यायार्थिक नय की अपेक्षा से अनित्यवाद का विवेचन करे । अपने अपने द्रव्य, क्षेत्र, काल और भाव की दृष्टि से सभी पदार्थ अपना अपना अस्तित्त्व लिये हुए हैं तथा वे अन्य द्रव्य अन्य क्षेत्र अन्य काल एवं अन्य भाव की दृष्टि से नास्तित्त्व लिये हुए हैं । अतएव कहा है-समस्त पदार्थ अपने-अपने स्वरूप आदि चार विकल्पों की दृष्टि से सत् है तथा पर रूप आदि चार की अपेक्षा से असत् है । ऐसा कौन नहीं चाहता ? कौन नहीं मानता ? ऐसा नहीं मानने से पदार्थों की व्यवस्था ही घटित नहीं होती । इस प्रकार साधु विभज्यवाद का संभाषण करे। विभज्यवाद को भी वह दो प्रकार की भाषाओं में व्याख्यात करे । सूत्रकार यह प्रतिपादित करते हैं । किसी
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