Book Title: Sutrakritang Sutra
Author(s): Sudarshanlal Acharya, Priyadarshan Muni, Chhaganlal Shastri
Publisher: Shwetambar Sthanakvasi Jain Swadhyayi Sangh

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Page 614
________________ श्री सूत्रकृताङ्ग सूत्रम् । अनुवाद - पाप को जुगुप्सित-घृणित मानता हुआ साधु प्राणियों के विनाश की अभिशंका से किसी को आशीर्वाद न दे । वह मन्त्र प्रयोग द्वारा अपने संयम को सारहीन-विकृत न बनाये । वह लोगों से किसी वस्तु को पाने की चाह न करे । वह असाधु जनोचित धर्म का उपदेश न दे। टीका - किंनिमित्तमाशीर्वादो न विधेय इत्याह-भूतेषु-जन्तुषूपमर्दशङ्का तयाऽऽशीर्वाद 'सावा' सपापं जुगुप्समानो न ब्रूयात तथा गास्त्रायत इति गोत्रं-मौनं वाक्संयमस्तं 'मंत्रपदेन' विद्यापमार्जनविधिना 'न निर्वाहयेत्' न निःसार कुर्यात् । यदिवा गोत्रं-जन्तूनां जीवितं 'मंत्रपदेन' राजादिगुप्तभाषणपदेन राजादीनामुपदेशदानतो 'न निर्वाहयेत्' नापनयेत्, एतदुक्तं भवति-न राजादिना साधू जन्तुजीवितोपमर्दकं मन्त्रं कुर्यात्, तथा प्रजायन्त इति प्रजाः-जन्तवस्तासु प्रजासु 'मनुजो' मनुष्यो व्याख्यानं कुर्वन् धर्मकथां वा न 'किमपि' लाभपूजा सत्कारादिकम् 'इच्छेद्' अभिलषेत्, तथा कुत्सितानाम्-असाधूनां धर्मान्-वस्तुदानतर्पणादिकान् ‘न संवदेत्' न ब्रूयाद् यदिवा नासाधुधर्मान् ब्रूवन् संवादयेत् अथवा धर्मकथां व्याख्यानं वा कुर्वन प्रजास्वात्मश्लाघारूपां कीर्ति नेच्छेदिति ॥२०॥ किञ्चान्यत् - ___टीकार्थ - साधु किस कारण आथीर्वाद न दे ? इसे स्पष्ट करते हुए सूत्रकार प्रतिपादित करते हैंप्राणियों के उपमर्द-नाश की आशंका से साधु सावद्य-पापयुक्त कार्यों से घृणा करता हुआ किसी को आशीर्वाद न दे । गो-वाणी का जो त्राण करता है, उसे गोत्र कहा जाता है । मौन या वाक्संयम गौत्र है । साधु विद्या के अपमार्जन की विधि से दुरुपयोग द्वारा अपने वाक्संयम को सारहीन न करे-उसे विकारयुक्त न बनाये अथवा प्राणियों का जीवन गौत्र कहलाता है । साधु, राजा आदि के साथ सावध गुप्त भाषण आदि द्वारा उसे तद्विषयक उपदेश दान द्वारा वाक् संयम का अपनयन न करे । कहने का अभिप्राय यह है कि राजा आदि के साथ ऐसा मन्त्र-विचार विमर्श या परामर्श आदि न करे जिससे प्राणियों का उपमर्दन हो । जो उत्पन्न होते हैं उन्हें प्रजा कहा जाता है, वे जन्तु हैं । उनके बीच धर्मकथा करता हुआ-व्याख्यान करता हुआ साधु उनसे लाभ, प्रतिष्ठा, सम्मान आदि पाने की अभिलाषा न करे। वस्तुदान तथा तर्पण आदि का जो असाधुजन स्वीकृत धर्म है, उपदेश न करे अथवा जो असाधु धर्मों का आख्यान करता हो उसका संवादन-समर्थन न करे अथवा धर्मकथा-धर्म प्रवचन करता हुआ वह लोगों में आत्मश्लाघात्मक कीर्ति की कामना न करे । अपनी बढ़ाई एवं यश न चाहे। * * * हासं पि णो संधति पावधम्मे, ओए तहीयं फरुसं वियाणे ।। णो तुच्छए णो य विकंथइज्जा, अणाइले या अकसाइभिक्खू ॥२१॥ छाया - हासमपि न संधयेत्पापधर्मान्, ओजस्तथ्यं परुषं विजानीयात् । न तुच्छो न स विकत्थयेदना कुलोवाऽकषायी भिक्षुः ॥ अनुवाद - साधु ऐसा वचन न बोले तथा दैहिक चेष्टा न करे जिससे हास उत्पन्न होता हो, जिससे वह लोगों में उपहासास्पद प्रतीत होता हो । साधु हंसी में भी पापपूर्ण धर्म का कथन न करे जिससे अन्य को दुःख होता हो । राग द्वेष से ऊंचा उठा हुआ साधु वैसा वचन भी न कहे । वह प्रतिष्ठा सम्मान आदि पाकर भी अभिमान एवं आत्म प्रशंसा न करे । वह कषायों से अनाविल-निर्मल रहे । टीका - यथा परात्मनोस्यिमुत्पद्यते तथा शब्दादिकं शरीरावयवमन्यान् वा पापधर्मान् सावद्यान्मनोवाक्कायव्यापारान् ‘न संधयेत्' न विदध्यात्, तद्यथा-इदं छिन्द्धि भिन्द्धि, तथा कुप्रावचनिकान् हास्यप्रायं नोत्प्रासयेत्, तद्यथा-शोभनं-भवदीयं व्रतं, तद्यथा 586

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