Book Title: Sutrakritang Sutra
Author(s): Sudarshanlal Acharya, Priyadarshan Muni, Chhaganlal Shastri
Publisher: Shwetambar Sthanakvasi Jain Swadhyayi Sangh

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Page 622
________________ श्री सूत्रकृताङ्ग सूत्रम् करता है, पदार्थ का शुद्ध-जैसा वह है, वैसा स्वरूप प्ररूपित करता है, अध्ययन पूर्वक-चिन्तन पूर्वक जो सूत्र का शुद्ध उच्चारण एवं प्रवचन करता है । जो शास्त्र विहित तपश्चरण करता है, जो शुद्ध चारित्रमूलक धर्म का भली भांति पालन करता है, जो अर्थ आज्ञाग्राह्य है उसे आज्ञा मात्र से प्रतिपन्न करता है, ग्रहण करता है, जो अर्थ हेतु ग्राह्य है, उसे हेतुपूर्वक ग्रहण करता है, स्वसिद्धान्त में जो सिद्ध है उसे स्व सिद्धान्त में ही स्थापित करता है, पर सिद्धान्त में जो सिद्ध है, उसे पर सिद्धान्त में ही स्थापित करता है । उत्सर्गमूलक अर्थ को उत्सर्ग रूप में और अपवाद मूलक अर्थ को अपवाद रूप में स्थापित करता है । जो इन गुणों से युक्त है विशेषताओं से युक्त है वही आदेय वाक्य या ग्राह्य वाक्य होता है-उसकी बात मानने योग्य होती है । जो शास्त्र प्रतिपादन में तथा सत् अनुष्ठान में-उत्तम आचरण में व्यक्त-परिस्फुट या निपुण होता है, जो समीक्षा किये बिना भली भांति विचारे बिना कार्य नहीं करता-ऐसे गुणों से समन्वित होता है वही सर्वज्ञ प्ररूपित ज्ञानादि का अथवा भाव समाधि का भाषण-विवेचन कर सकता है, अन्य कोई वैसा नहीं कर सकता । यहां इति शब्द परिसमाप्ति के अर्थ में है । ब्रवीमि बोलता हूं, पूर्ववत् है । अनुगमं समाप्त हुआ । नय पूर्ववत् आख्येय है । चौदहवां ग्रन्थाध्ययन समाप्त हुआ । 594

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