Book Title: Sutrakritang Sutra
Author(s): Sudarshanlal Acharya, Priyadarshan Muni, Chhaganlal Shastri
Publisher: Shwetambar Sthanakvasi Jain Swadhyayi Sangh

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Page 619
________________ ग्रन्थनामकं अध्ययनं कि मैंने अपना कार्य कर दिया है किंतु श्रवणकर्ता की योग्यता की अपेक्षा से जानने योग्य गहन अर्थ को उत्तम हेतु तथा युक्ति आदि द्वारा पूरी तरह व्याख्यात करे । ऐसे विषय को ज्ञापित कराता हुआ साधु अस्खलित-स्खलन रहित, स्पष्ट अमिलित-पृथक् पृथक्, अहीन-किसी अक्षर को छोड़े बिना अर्थ का प्रतिपूर्णभाषी बने-विस्तार से अर्थ का अभिभाषण करे । आचार्य आदि से पदार्थ-तत्त्व श्रवण कर उसका अर्थ सही रूप में भली भांति अवगत कर वह गुरु के पास से गृहीत-अवधारित अर्थ को भली भांति जानता हुआ वह सर्वज्ञ प्रणीत आगमों के अनुसार शुद्ध, आगे पीछे के संदर्भ से अविरुद्ध अप्रतिकूल निरवद्य-निर्दोष पाप रहित वचन का प्रयोग करे। उत्सर्गमूलक तथा अपवाद के विषय में अपवादमूलक तथा अपने सिद्धान्त तथा दूसरों के सिद्धान्त जैसे हैं तदनुरुप वचन बोले । इस प्रकार पाप का विवेक रखते हुए वाणी का प्रयोग करता हुआ साधु लाभ सम्मान आदि पाने की आकांक्षा न रखे तथा निर्दोष वचन बोलने की भावना लिये रहे। फिर भाषा विधि को अधिकृत कर सूत्रकार कहते हैं अहाबुइयाई सुसिक्खएज्जा, जइज्जाया णातिवेलं वदेज्जा । से दिट्ठिमं दिट्ठि ण लूसएजा, से जाणई भासिउं तं समाहिं ॥२५॥ छाया - यथोक्तानि : सुशिक्षेत, यतेत नातिबेलं वदेत् । स दृष्टिमान् दृष्टिं न लूषयेत्, स जानातिभाषितुं तं समाधिम् ॥ अनुवाद - साधु तीर्थंकर तथा गणधर आदि महापुरुषों के वचनों का सदा अनुशीलन करे, तदनुसार आचरणशील रहे । वह मर्यादा का अतिक्रमण कर अधिक भाषण न करे । सम्यक् दृष्टि साधु दृष्टि को, सम्यक् दर्शन को लूषित-दूषित या दोषपूर्ण न बनाये । वही सर्वज्ञ-तीर्थंकर प्रतिपादित भाव समाधि को-मोक्षमूलक साधना को जानता है । प्राप्त करता है । .. टीका - यथोक्तानि तीर्थकरगणधरादिभिस्तान्यहर्निशं 'सष्ठ शिक्षेत' ग्रहण शिक्षया सर्वज्ञोक्तमागमं सम्यग गह्नीयाद् आसेवनाशिक्षया त्वन वरतमुद्युक्तविहारितयाऽऽसेवेत, अन्येषां च तथैव प्रतिपादयेद्, अतिप्रसक्तलक्षणनिवृत्तये त्वपदिश्यते, सदा ग्रहणासेवनाशिक्षयोदेशनायां यतेत, सदा यतमानोऽपि यो यस्य कर्त्तव्यस्य कालोऽध्ययनकालो वा तां वेलामतिलङ्घय नातिबेलं वदेद्-अध्ययन कर्त्तव्य मर्यादा नातिलवयेत्स (दस) दनुष्ठानं प्रति व्रजेद्वा, यथावसरं परस्पराबाधया सर्वाः क्रियाः कुर्यादित्यर्थः । स एवं गुणजातीयो यथाकालवादी यथाकालचारी च 'सम्यग्दृष्टिमान्' यथा वस्थितान् पदार्थान् श्रद्दधानो देशनां व्याख्यानं वा कुर्वन् 'दृष्टिं' सम्यग्दर्शनं 'न लूषयेत्' न दुषयेत्, इदमुक्तं भवति-पुरुषविशेषं ज्ञात्वा तथा तथा कथनीयमपसिद्धान्तदेशनापरिहारेण यथा यथा श्रोतुः सम्यक्त्वं स्थिरीभवति, न पुनः शङ्कोत्पादनतो दूष्यते, यश्चैवंविधः स 'जानाति' अवबुध्यते 'भाषितुं' प्ररूपयितुं 'समाधि' सम्यग्दर्शनज्ञानचारित्राख्यं सम्यचित्तव्यवस्थानाख्यं वा तं सर्वज्ञोक्तं समाधिं सम्यगवगच्छतीति ॥२५॥ टीकार्थ – तीर्थंकर, गणधर आदि महापुरुषों द्वारा प्रतिपादित वचनों का साधु अहर्निश भलीभांति अभ्यास करे । वह ग्रहण शिक्षा द्वारा सर्वज्ञ प्रणीत आगम को सम्यक् गृहीत करे-आत्मसात करे। आसेवना शिक्षा द्वारा संयम के परिपालन में प्रयत्नशील रहे । वह दूसरे लोगों को भी आगम का उपदेश दे । अनुचित-अवांछित 5910

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