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ग्रन्थनामक अध्ययन में सच्चा मानव है । वह प्रतिज्ञा सदैव गुरु के सान्निध्य में निवास करने और सदाचरणमय समाधि का-मोक्ष मार्ग का अनुसरण करने से निभ पाती है-अन्यथा नहीं । इसका दिग्दर्शन कराते हुए कहते हैं-जो गुरु के समीप निवास नहीं करता, वह अव्यवस्थित-व्यवस्थाविहीन होता है, स्वछन्दताचारी होता है । वह प्रतिज्ञात-प्रतिज्ञा किये हुए सदनुष्ठान रूप उत्तम आचारमूलक कर्म को पार लगाने में-भली भांति निभा पाने में समर्थ नहीं होता। यह जानकर सदैव गुरुकुल में वास करना चाहिये । सन्मार्ग का अनुसरण करना चाहिये जो उससे रहित होता है उसका विज्ञान-विद्या हास्यास्पद होती है । कहा गया है-जिसने गुरुकुल की उपासना नहीं की है उसका विज्ञान-उसका निर्विगोपक-निश्चय ही संरक्षक नहीं होता क्योंकि गुरु के शिक्षण के बिना नृत्य करते हुए मयूर की देह का पीछे का भाग प्रकटित-उद्घाटित रहता है । बकरे के गले में लगी हुई बालुका को एडी के प्रहार से झड़ी हुई देखकर एक अन्य अज्ञ-अविवेकी पुरुष ने जो गुरु की उपासना में वर्तनशील नहीं रहा अपनी एडी के प्रहार से उस राणी को मार डाला जिसके गले में गांठ हो गई थी इत्यादि । गुरु की उपासना जिसने नहीं की उसमें बहुत से दोष उत्पन्न हो जाते हैं, जिनसे संसार बढ़ता है । यह जानकर इस वक्ष्यमाण मर्यादा के साथ गुरु के समीप निवास करना चाहिये । सूत्रकार यह व्यक्त करते हुए कहते हैं-धर्म का व्याख्याता मुक्ति गमन योग्य उत्तम साधु के या राग द्वैष विवर्जित सर्वज्ञ के वृत-अनुष्ठान या उत्तम आचरण का अवभासनप्रकाशन करना चाहिये । गुरुकुल में निवास करने से अनेकानेक गुण आते हैं । अतः साधु को चाहिये कि वह अपने गच्छ से या गुरु के पास से बाहर न जाये, स्वेच्छाचारी न बने । वह आशुप्रज्ञ-तीव्र मेघा का धनी गुरु के समीप रहता हुआ जब यह अनुभव करे कि विषय और कषाय उसकी आत्मा का हरण कर रहे हैंअभिभूत कर रहे हैं तो वह आचार्य के आदेश या स्वयं आत्मा को, अपने आपको उधर से हटा लेता है तथा समाधि में व्यवस्थापित-संस्थित कर लेता है।
इस प्रकार अपने प्रव्रजित जीवन में-उसके विकास में उद्यत-तत्पर साधु नित्य गुरु कुलवास में रहता हुआ सर्वत्र स्थान, शयन, आसन आदि में उपयुक्त-उपयोग सहित वर्तता है । - उस ओर उद्यत साधु को जो गुण प्राप्त होते हैं उन्हें उद्भावित करते हुए सूत्रकार कहते हैं।
जे ठाणओ य सयणासणे य, परक्कमे यावि सुसाहजुत्ते । समितीसु गुत्तीसु य आयपन्ने, वियागरिते य पुढो वएजा ॥५॥ छाया - यः स्थानतश्च शयनासनाभ्याञ्च पराक्रमतश्च सुसाधुयुक्तः ।
समितिषु गुप्तिषु चावगतप्रज्ञः, व्याकुर्वश्च पृथग् वदेत् ॥ . अनुवाद - गुरुकुल वासी साधु स्थान, शयन, आसन एवं पराक्रम-संयम विषयक उद्यम में उत्तम साधु के सदृश संलग्न रहता है । वह समितियों एवं गुप्तियों का सम्यक् ज्ञाता होता है, पालन करता है । वह अन्य जनों को उनका उपदेश देता है।
टीका - यो हि निर्विण्णसंसारतया प्रव्रज्यामभि उद्यतो नित्यं गुरुकुलवासतः 'स्थानतश्च' स्थानमाश्रित्य तथा शयनत आसनतः, एकश्चकारः समुच्चये द्वितीयोऽनुक्तसमुच्चयार्थः चकाराद्गमनमाश्रित्यागमनं च तथा तपश्चरणादौ पराक्रमतश्च, (सु) साधोः-उद्युक्तविहारिणो येसमाचारास्तै:समायुक्तःसुसाधुयुक्तःसुसाधुर्हि यत्र स्थानं-कायोत्सर्गादिकं
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