Book Title: Sutrakritang Sutra
Author(s): Sudarshanlal Acharya, Priyadarshan Muni, Chhaganlal Shastri
Publisher: Shwetambar Sthanakvasi Jain Swadhyayi Sangh

Previous | Next

Page 598
________________ श्री सूत्रकृतांङ्ग सूत्रम् हो । तुम्हारे बिना हमको सब शून्यवत् आभासित होता है - प्रतीत होता है शब्दादि विषयों-भोग्य पदार्थों के उपभोग हेतु आमंत्रित करते हुए वे उसे सद्धर्म से च्युत कर देते हैं । इसी प्रकार राजा भी करते हैं, यह समझ लेना चाहिये । इस प्रकार धर्म से अपरिपक्व एकाकी विहरणशील साधु को अनेक प्रकार से प्रतारित कर वे हर लेते हैं, भ्रष्ट कर देते हैं I ओसाणमिच्छे मणुए समाहिं, अणोसिए णंतकरिंति णच्चा । ओभासमाणे दवियस्स वित्तं, ण णिक्कसे बहिया आसुनो ॥४॥ छाया अवसानमिच्छेन्मनुजः समाधि मनुषितो नान्तकर इति ज्ञात्वा । अवभासयन् द्रव्यस्य वृत्तं, न निष्कसेद्वहिराशुप्रज्ञः ॥ ॐ ॐ ॐ • जो साधु गुरुकुल में निवास नहीं करता, वह कर्मों का उच्छेद नहीं कर सकता। यह जानकर - अनुवाद उसे चाहिये कि वह सदैव गुरुकुल में निवास करे तथा समाधि के उत्तम संयम के परिपालन की भावना लिये रहे । वह उस आचार को स्वीकार करे जिसके सहारे साधक मुक्ति प्राप्त करता है। वह गच्छ से वहिर्गत न हो । टीका - तदेवमेकाकिनः साधौर्यतो बहवो दोषाः प्रादुर्भवन्ति अतः सदा गुरुपादमूले स्थातव्यमित्येतद्दर्शयितुमाह'अवसानं' गुरोरन्तिके स्थानं तद्यावज्जीवं 'समाधिं' सन्मार्गानुष्ठानरूपम् 'इच्छेद्' अभिलषेत् 'मनुजो' मनुष्यः साधुरित्यर्थः, स एव च परमार्थतो मनुष्यो यो यथाप्रतिज्ञातंनिर्वाहयति, तच्च सदा गुरोरन्तिके व्यवस्थितेन सदनुष्ठानरूपं समाधिमनुपालयता निर्वाह्यते, नान्यथेत्येतद्दर्शयति-गुरोरन्तिके 'अनुषितः ' अव्यवस्थितः स्वच्छन्दविधायी समाधेः सदनुष्ठानुरूपस्य कर्मणो यथाप्रतिज्ञातस्य वा नान्तकरो भवतीत्येवं ज्ञात्वा सदा गुरुकुलवासोऽनुसर्तव्यः, तद्रहितस्य विज्ञानमुपहास्यप्रायं भवतीति, उक्तं च - " न हि भवति निर्विगोपकमनुपासितगुरुकुलस्य विज्ञानम् । प्रकटितपश्चाद्भागं पश्यत नृत्यं मयूरस्य ॥१॥” तथाऽजां गलविलग्नवालुकां पार्ष्णिप्रहारेण प्रगुणां दृष्ट्वाऽपरोऽनुपासितगुरुरज्ञो राज्ञीं संजातगलगण्डां पार्ष्णिप्रहारेण व्यापादितवान्, इत्यादयः अनुपासितगुरोर्बहवो दोषाः संसारवर्धनाद्या भवन्तीत्यवगम्यानया मर्यादया गुरोरन्ति स्थातव्यमिति दर्शयति-' अवभासयन्' उद्भासयन् सम्यगनुतिष्ठन् 'द्रव्यस्य' मुक्तिगमनयोग्यस्य सत्साधो रागद्वेषरहितस्य सर्वज्ञस्य वा वृत्तम्- अनुष्ठानं तत्सदनुष्ठानतोऽवभासयेद्, धर्मकथिकः कथनतो वोद्भासयेदिति । तदेवं यतो गुरुकुलवासो बहूनां गुणानामाधारो भवत्यतो 'न निष्कसेत्' न निर्गच्छेत् गच्छाद्गुर्वन्तिकाद्वा वहि:, स्वेच्छाचारी न भवेद्, 'आशुप्रज्ञ' इति क्षिप्रप्रज्ञः, तदन्तिके निवसन् विषयकषायाभ्यामात्मानं हियमाणं . ज्ञात्वा क्षिप्रमेवाचार्योपदेशात्स्वत एव वा 'निवर्तयति' सत्समाधौ व्यवस्थापयतीति ॥४॥ तदेवं प्रव्रज्यामभि उद्यो नित्यं गुरुकुलवासमावसन् सर्वत्र स्थानशयनासनादावुपयुक्तो भवति तदुपयुक्तस्य च गुणमुद्भावयन्नाहं टीकार्थ - जैसा पहले बताया गया है कि एकांकी साधु में अनेक दोष प्रादुर्भूत हो जाते हैं, इसलिये उसे सदैव गुरु के पादमूल में - चरणों के आश्रय में ही रहना चाहिये । सूत्रकार यह दिग्दर्शन कराते हुए कहते हैं - मानव यावज्जीवन गुरु की सन्निधि में निवास और उत्तम मोक्ष मार्ग का अनुष्ठान अनुसरण करने की अभिलाषा रखे । वही वास्तव में मानव है- साधु है जो जैसी प्रतिज्ञा की है, उसका यथावत् निर्वाह करता है । वह वास्तव 570

Loading...

Page Navigation
1 ... 596 597 598 599 600 601 602 603 604 605 606 607 608 609 610 611 612 613 614 615 616 617 618 619 620 621 622 623 624 625 626 627 628 629 630 631 632 633 634 635 636 637 638 639 640 641 642 643 644 645 646 647 648 649 650 651 652 653 654 655 656 657 658