Book Title: Sutrakritang Sutra
Author(s): Sudarshanlal Acharya, Priyadarshan Muni, Chhaganlal Shastri
Publisher: Shwetambar Sthanakvasi Jain Swadhyayi Sangh

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Page 604
________________ श्री सूत्रकृताङ्ग सूत्रम् तथा नाप्यपरेण स्वतोऽधमेनापि चोदितोऽर्हन्मार्गानुसारेण लोकाचारगत्या वाऽभिहितः परमार्थं पर्यालोच्य तं चोदकं प्रकर्षेण— व्यथेत्’दण्डादिप्रहारेण पीडयेत् न चापि किञ्चित्परुषं तत्पीड़ाकारि' वदेत्' ब्रूयात्, ममैवायमसद्नुष्ठायिनो दोषो येनायमपि मामेवं चोदयति, चोदितश्चैवंविधं भवता असदाचरणं न विधेयमेवंविधं च पूर्वर्षिभिरनुष्ठितमनुष्ठेयमित्येवंविधं वाक्यं तथा करिष्यादुष्कृतादिनानिवर्तेत, यदेतच्चोदनं नामैतन्ममव श्रेयो, यत एतद्भयात्क्वचित्पुनः प्रमादं न कुर्यान्नैवासदाचरण मनुतिष्ठेदिति ॥९॥ टीकार्थ - आचार स्खलित होने पर साधु को यदि स्वपक्षवर्ती तथा पर पक्षवर्ती उसकी स्खलना बताये व उसे दुर्वचन - कठोर वचन भी कहे, तो वह उनमें अपनी आत्मा का श्रेयस समझकर बताने वाले पर क्रोध न करे । वह 'चिन्तन करे कि आक्रोशयुक्त बुद्धिशील पुरुष ने जो कहा है मुझे उसकी वास्तविकता पर चिन्तनमनन करना चाहिये । यदि सत्य -उसका आक्रोश सत्य है तो क्रोध की क्या बात है ? यदि असत्य है तो क्रोध से लाभ क्या है ? यदि अपने से अधम- निम्न कोटिय पुरुष भी यदि तीर्थंकर प्ररूपित मार्ग के अनुरूप प्रेरणा दे, अथवा लोक व्यवहार की परम्परा के अनुसार कथन करे तो साधु परमार्थ की पर्यालोचना करता हुआ उस प्रेरक पुरुष को व्यथित पीडित न करे तथा कठोर वचन कहकर उसे दुःखित न करे, परन्तु वह ऐसा कहे कि मैं असत् अनुष्ठान-अनाचरणीय कार्य में संलग्न हूं, यह मेरा ही दोष है, अतएव मुझे यह प्रेरित करता है । यदि प्रेरणा देने वाला उसे यों कहे कि आपको ऐसा असत् आचरण नहीं करना चाहिये, वरन् आपको तो पहले ऋषियों ने-सत्पुरुषों ने जैसा आचरण किया है, वैसा करना चाहिये, इस पर साधु मध्यस्थ वृत्ति सेतटस्थ भावना से चिन्तन कर यह प्रतिज्ञा करे कि मैं अब ऐसा ही करूंगा तथा अपने द्वारा आचरित दुष्कर्मों के लिये वह अपने को मिच्छाभिं दुक्कडं दे, मेरे द्वारा किया गया दुष्कृत मिथ्या हो, पुनः मेरे जीवन में न व्यापे, ऐसी भावना लाये । वह सोचे कि मुझे जो प्रेरणा दी गई है उसमें मेरा ही श्रेयस निहित है । साधु इसके भय से ऐसा न करने से मेरा अहित होगा । यों आत्मभीतिपूर्वक प्रमाद न करे। असद् आचरण का अनुष्ठान न करे । ॐ ॐ ॐ वणंसि मूढस्स जहा अमूढ़ा, मग्गाणुसासंति हितं पयाणं । तणेव (तेणावि) मज्झं इणमेव सेयं, जं मे बुहा समणुसासयति ॥१०॥ छाया वने मूढस्य यथाऽमूढाः, मार्गमनुशासति हितं प्रजानाम् । तेनापि मह्यमिदमेव श्रेयः यन्मे वृद्धाः सम्यगनुशासति ॥ अनुवाद - जैसे वन में भटका हुआ - खोया हुआ पुरुष मार्गवेत्ताओं द्वारा बताये जाने पर प्रसन्न होता है और यह अनुभव करता है कि इससे मेरा हित सधेगा । इसी प्रकार जो ज्ञानीजन उत्तम मार्ग बतलाते हो, साधु यह सोचकर प्रसन्नता का अनुभव करे कि ये मुझे श्रेयस्कर मार्ग बता रहे है, मेरा यही इसमें कल्याण है । टीका - अस्यार्थस्य दृष्टान्तं दर्शयितुमाह-'वने ' गहने महाटव्यांदिग्भ्रमेण कस्यचिद्व्याकुलितमतेर्नष्टसत्पथस्य यथा केचिद परे कृपाकृष्टमानसा' अमूढाः’सदसन्मार्गज्ञाः कुमार्गपरिहारेण प्रजानां हितम्' अशेषापायरहितमीप्सितस्थान प्रापकं 'मार्ग' पन्थानम् ' अनुशासति' प्रतिपादयन्ति, स च तैः सदसद्विवेकिभिः सन्मार्गावतरणमनुशासित आत्मनः 576

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