Book Title: Sutrakritang Sutra
Author(s): Sudarshanlal Acharya, Priyadarshan Muni, Chhaganlal Shastri
Publisher: Shwetambar Sthanakvasi Jain Swadhyayi Sangh

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Page 610
________________ श्री सूत्रकृताङ्गसूत्रम् अनुवाद - गुरु द्वारा प्रदत्त उपदेश के अनुसार वर्तनशील साधु मन, वाणी एवं शरीर द्वारा प्राणियों का त्राण-रक्षण करे । इस प्रकार-समितियों तथा गुप्तियों का पालन करने से ही कर्म निरोध-कर्म क्षय होता है । यह सर्वज्ञों ने बतलाया है । वे त्रिलोकदर्शी-तीन लोकों को देखने वाले महापुरुष ऐसा आख्यात करते हैं कि साधु कभी प्रमाद का सेवन न करे। टीका- किञ्चान्यत्-'अस्मिन् ' गुरुकुलवासे निवसता यच्छ्रुतं श्रुत्वा च सम्यक् हृदयव्यवस्थापनद्वारेणावधारितं तस्मिन् समाधिभूते मोक्षमार्गे सुष्ठु स्थित्वा 'त्रिविधेने' त्ति मनोवाक्कायकर्मभिः कृतकारितानुमतिभिर्वाऽऽत्मानं त्रातुं शीलमस्येति त्रायी जन्तुनां सदुपदेशदानतस्त्राणकरणशीलो वा तस्य स्वपरत्रायिणः, एतेषु च समितिगुप्त्यादिषु समाधिमार्गेषु स्थितस्य शान्तिर्भवति-अशेषद्वन्द्वोपरमो भवति तथा निरोधम्-अशेषकर्मक्षयरूपम् 'आहुः' तद्विदः प्रतिपादितवन्तः, क एवमाहुरित्याह त्रिलोकभू-उर्ध्वाधस्तिर्यग्लक्षणं द्रष्टुं शीलं येषां ते त्रिलोकदर्शिन:-तीर्थकृतः सर्वज्ञास्ते 'एवम्' अनन्तरोक्तया नीत्या सर्वभावान् केवलालोकेन दृष्ट्वा 'आचक्षते' प्रतिपादयन्तीति । एतदेव समितिगुप्त्यादिकं संसारोत्तारणसमर्थं ते त्रिलोकदर्शिनः कथितवन्तो न पुनर्भूय एतं (नं) 'प्रमादसङ्ग' मद्यविषयादिकं संबन्धं, 'विधेयत्वेन प्रतिपादितवन्तः ॥१६॥ किञ्चान्यत् - टीकार्थ - गुरुकुलवास में रहते हुए शिष्य ने जो श्रवण किया, श्रवण कर अपने हृदय में भली भांति स्थापित किया, अवधारित किया । वह उस समाधिमुलक मोक्षमार्ग में अच्छी तरह स्थित होकर मन, वाणी और शरीर द्वारा तथा कृत, कारित एवं अनुमोदित रूप तीन करणों द्वारा आत्मा का त्राण करे-रक्षण करे अथवा सदुपदेश देकर औरों का त्राण करे । इस प्रकार जो साधु अपनी आत्मा का तथा अन्यों का त्राण करता है, समिति तथा गुप्ति पूर्वक समाधि मार्ग-मोक्ष मार्ग में अवस्थित रहता है, वह शांति प्राप्त करता है । उसके सभी द्वन्द्व-झंझट मिट जाते हैं । तथा उसके समग्रकर्म क्षीण हो जाते हैं । ज्ञानी पुरुष ऐसा बतलाते हैं वे ज्ञानी पुरुष कौन हैं ? सूत्रकार यह प्रकट करते हुए कहते हैं-जो पुरुष उर्ध्व, अधः एवं तिर्यक वर्ती पदार्थों को देखते हैं वे त्रिलोकदर्शी-तीनों लोकों को देखने वाले तीर्थंकर सर्वज्ञ, जैसा पहले कहा गया है केवल दर्शन द्वारा समस्त भावों को-पदार्थों को देखकर प्रतिपादन करते हैं, उपदेश देते हैं । उन त्रिलोकदर्शी महापुरुषों ने समिति, गुप्ति आदि से युक्त मार्ग को ही संसार से पार लगाने वाला बताया है । उन्होंने प्रमाद से जुड़े हुए मद्य सेवन, विषय सेवन आदि को वैसा नहीं कहा है । निसम्म से भिक्खु समीहियटुं, पडिभाणवं होइ विसारएय । आयाणअट्ठी वोदाणमोणं, उवेच्च सुद्धेण उवेति मोक्खं ॥१७॥ छाया - निशम्य स भिक्षुः समीहितार्थं, प्रतिभानवान् भवति विशारदश्च । ___ आदानार्थी व्यवदामौन मुपेत्य शुद्धेनोपैति मोक्षम् ॥ अनुवाद - गुरुकुलवासी शिष्य साधु के आचार को श्रवण कर अपने अभिप्सित अर्थ-मोक्ष को जानकर प्रतिभाशाली तथा विशारद-धर्म सिद्धान्त का आख्याता-वक्ता हो जाता है । वह सम्यक्ज्ञान आदि का ही प्रयोजन लिये रहता है । व्यवदान-तप एवं मौन-संयम को प्राप्त कर शुद्ध आहार आदि का सेवन करता हुआ मोक्ष प्राप्त करता है। -582)

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