Book Title: Sutrakritang Sutra
Author(s): Sudarshanlal Acharya, Priyadarshan Muni, Chhaganlal Shastri
Publisher: Shwetambar Sthanakvasi Jain Swadhyayi Sangh

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Page 611
________________ ग्रन्थनामकं अध्ययनं टीका - स गुरुकुलवासी भिक्षुः द्रव्यस्य वृत्तं 'निशम्य' अवगम्य स्वतः समीहितं चार्थ-मोक्षार्थं बुद्धवा हेयोपादेयं सम्यक् परिज्ञाय नित्यं गुरुकुलवासतः 'प्रतिभानवान्' उत्पन्नप्रतिभो भवति । तथा सम्यक् स्वसिद्धान्तपरिज्ञानाच्छ्रोतृणां यथावस्थितार्थानां 'विशारदो भवति' प्रतिपादकोभवति । मोक्षार्थिनाऽऽदीयत इत्यादानं सम्यग्ज्ञानादिकं तेनार्थः स एव वाऽर्थः आदानार्थः स विद्यते यस्यासावादानार्थी, स एवंभूतो ज्ञानादिप्रयोज़नवान् व्यवदानं-द्वादशप्रकारंतपो मौनं-संयम आश्रवनिरोधरूपस्तदेवमेतौ तप:संयमावुपेत्य-प्राप्य ग्रहणासेवनरुपया द्विविधयापि शिक्षया समन्वितः सर्वत्र प्रमादरहितः प्रतिभानवान् विशारदश्च 'शुद्धेन' निरुपाधिना उद्गमादिदोषशुद्धेन चाहारेणात्मानं यापन्नशेष कर्मक्षयलक्षणं मोक्षमुपैति 'न उवेइमार' ति क्वचित्पाठः, बहुशो म्रियन्ते स्वकर्मपरवशा:प्राणिनो यस्मिन् स मार:-संसारस्तं जातिजरामरणरोगशोकाकुलं शुद्धेन मार्गेणात्मानं वर्तयन्, न उपैति, यदिवा मरणं-प्राणत्यागलक्षणं मारस्तं बहुशोनौपैति, तथाहि-अप्रतिपतितसम्यक्त्व उत्कृष्टतः सप्ताष्टौ वा भवान् म्रियते नोर्ध्वमिति ॥१७॥ टीकार्थ - गुरुकुलवासी भिक्षु द्रव्यकृत-मोक्षोपयोगी साध्वाचार का श्रवण कर एवं अपने अभिप्सित प्रयोजन को समझकर तथा हेय एवं उपादेय पदार्थों को सम्यक् परिज्ञात कर सदा गुरुकुल में रहने के कारण प्रतिभाशील हो जाता है । वह अपने सिद्धान्त के परिज्ञान के कारण श्रोताओं को यथार्थ वस्तु स्वरूप समझाने में कुशल या प्रवीण हो जाता है । मोक्षार्थी द्वारा जो ग्रहण किया जाता है उसे आदान कहा जाता है, वह सम्यक्ज्ञान आदि है । उसको ही अपना प्रयोजन-लक्ष्य मानता हुआ वह साधु बारह प्रकार के तप तथा आश्रव निरोधात्मक संयम को अधिगत कर ग्रहण शिक्षा तथा आसेवना शिक्षा द्वारा तपश्चरण एवं संयम से अन्वित होकर उद्गम आदि दोषों से वर्जित आहार द्वारा अपना जीवन निर्वाह करता हुआ, समग्र कर्मों का क्षय करता है, मोक्ष प्राप्त करता है । "न उवेइ मारं" कहीं कहीं ऐसा पाठ प्राप्त होता है । इसका यह तात्पर्य है कि जिसमें प्राणी अपने कर्मों के परिणाम स्वरूप बार-बार मृत्यु प्राप्त करते हैं, उसे मार कहा जाता है, वह संसार है । शुद्ध मार्ग का अवलंबन करता हुआ जो साधु चलता है, संयम में वर्तनशील रहता है, वह इस संसार को प्राप्त नहीं करता। जो जन्म, वृद्धावस्था, मृत्यु, रोग तथा शोक से आकुल है-पीड़ित है, अथवा प्राण त्याग को मार कहा जाता है। वह बार बार उसे-मृत्यु को प्राप्त नहीं करता क्योंकि अप्रतिपाति सम्यक्त्व से युक्त होने के कारण वह अधिक से अधिक सात, आठ भव में ही मरण को प्राप्त होता है, उससे अधिक नहीं । संखाइ धम्मं च वियागरंति, बुद्धा हु ते अंतकरा भवंति । ते पारगा दोण्हवि मोयणाए, संसोधितं पण्हमुदाहरंति ॥१८॥ छाया - संख्यया धर्म व्यागृणन्ति, बुद्धाहि तेऽन्तकराभवन्ति । ते पारगा द्वयोरपि मोचनया, संशोधितं प्रश्न मुदाहरन्ति ॥ __ अनुवाद - गुरुकुल वासी साधक सद्बुद्धि द्वारा धर्म को स्वायत कर दूसरों को उसका उपदेश करते हैं । वैसे बुद्ध-ज्ञानी पुरुष कर्मों का अन्त-नाश करते हैं । वे अपने को तथा अन्यों को कर्म पाश से मुक्त कर संसार सागर को पार कर जाते हैं । वैसे महापुरुष संशोधन पूर्वक-सोच विचार कर प्रश्न का उत्तर देते हैं । ___टीका - तदेवं गुरुकुलनिवासितया धर्मे सुस्थिता बहुश्रुताः प्रतिभावनन्तोऽर्थविशारदाश्च सन्तो यत्कुर्वन्ति तदर्शयितुमाह-सम्यक ख्यायते-परिज्ञायते यया सा संख्यासबुद्धिस्तया स्वतो धर्मं परिज्ञायापरेषांयथावस्थितं 'धर्म' -583

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