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छाया
ग्रन्थनामकं अध्ययनं
कालेन पृच्छेत्समितं प्रजासु, आचक्षमाणो द्रव्यस्य वित्तम् । तच्छ्रोत्रकारी पृथक् प्रवेशयेत्, संख्यायेमं कैवलिकं समाधिम् ॥
अनुवाद - साधु अनुकूल अवसर जानकर समित- सदाचरण शील आचार्य से प्रजा - प्राणियों के संबंध में प्रश्न करे । सर्वज्ञोक्त आगम के उपदेष्टा आचार्य का सम्मान करे तथा उनके उपदेश को हृदय में प्रतिष्ठापित करे ।
टीका - गुरोरन्तिके वसतो विनयमाह - सूत्रमर्थं तदुभयं वा विशिष्टेन - प्रषृव्यकालेनाचार्यादेरवसरं ज्ञात्वा प्रजामन्त इति प्रजा - जन्तवस्तासु प्रजासु-जन्तुविषये चतुर्दशभूतग्रामसंबंद्धं कञ्चिदाचार्यादिकं सम्यगितं सदाचारानुष्ठायिनं सम्यक् वा समन्ताद्वा जन्तुगतं पृच्छेदिति । स च तेन पृष्ट आचार्यादिराचक्षाणः शुश्रुयितव्यो भवति, यदाचक्षाणस्तदृर्शयतिमुक्तिगमनयोग्यो भव्यो द्रव्यं रागद्वेषविरहाद्वाद्रव्यं तस्य द्रव्यस्य वीतरागस्य वा वृत्तम्- अनुष्ठानं संयमं ज्ञानं वा तत्प्रणीतमागमं वा सम्यगाचक्षाणः सपर्ययाऽयं माननीयो भवति । कथमित्याह - ' तद्' आचार्यादिना कंथितं श्रोत्रेकर्णे कर्तुं शीलमस्य श्रोत्रकारी - यथोपदेशकारी आज्ञाविधायी सन् पृथक् पृथगुपन्यस्तमादरेण हृदये प्रवेशयेत् - चेतसि व्यवस्थापयेत्, व्यवस्थापनीयं दर्शयति- 'संख्याय' सम्यक् ज्ञात्वा 'इम' मिति वक्ष्यमाणं केवलिन इदं कैवलिकं- केवलिना कथितं समाधिं-सन्मार्गं सम्यग्ज्ञानादिकं मोक्षमार्गमाचार्यादिना कथितं यथोपदेशं प्रवर्त्तकः पृथग् विविक्तं हृदये पृथग्व्यवस्थापयेदिति ॥१५॥
टीकार्थ अब सूत्रकार गुरु के समीप वास करने वाले शिष्य को विनय की शिक्षा देते हुए कहते हैं- शिष्य प्रष्टव्यकाल - प्रश्न करने के उचित समय को देखकर प्रजा - प्राणियों के संबंध में या चौदह प्रकार के भूतों के संबंध में सदाचार परायण आचार्य आदि से सूत्र एवं अर्थ दोनों ही को लेकर के प्रश्न करे। जो उत्पन्न होते हैं वे जीव प्रजा कहलाते हैं। पूछे जाने पर उत्तर देते हुए आचार्य का कथन शिष्य सम्मानपूर्वक श्रवण करे । आचार्य जो आख्यात करते हैं-उपदेश देते हैं, सूत्रकार उसका दिग्दर्शन कराते हुए कहते हैं- भव्य जन जो मोक्ष प्राप्त करने की योग्यता लिये होता है, द्रव्य कहा जाता है अथवा जो राग एवं द्वेष रहित होता है उसे द्रव्य कहा जाता है ऐसे वीतराग तीर्थंकर के संयम या ज्ञान या उन द्वारा प्ररूपित आगम का भलीभांति उपदेश करने वाले आचार्य का वह शिष्य सम्मान सत्कार करे । किस प्रकार करे ? यह बतलाते हुए सूत्रकार कहते हैं-आचार्य आदि द्वारा दी गई शिक्षा को वह कानों में धारण करे - ध्यान से सुने तदनुसार आचरण करे। उनके आदेश का अनुसरण करे तथा आदर के साथ उसे अपने हृदय में उपन्यस्त करे- प्रतिष्ठापित करे । अब हृदय में व्यवस्थापनीय-प्रतिष्ठित करने योग्य विषय का सूत्रकार दिग्दर्शन कराते हुए कहते हैं - सर्वज्ञ द्वारा प्ररूपित सम्यक्ज्ञानादिमूलक मोक्ष मार्ग को, जो आगे कहा जायेगा, आचार्य आदि से श्रवण कर तद्नुसार प्रवृत होता हुआ साधु उसे विवेक पूर्वक अपने हृदय में प्रतिष्ठापित करे ।
अस्सिं सुठिच्चा तिविहेण तायी, एएसु या संति निरोहमा । ते एवमक्खंति तिलोगदंसी, ण भुज्जयेयंति पमायसंगं ॥१६॥
छाया अस्मिन् सुस्थाय त्रिविधेन त्रायी, एतेषुच शान्तिं निरोधमाहुः ।
तएव माचक्षते त्रिलोकदर्शिनः न भूय एतन्तु प्रमादसंङ्गम् ॥
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