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श्री सूत्रकृताङ्ग सूत्रम्
में
स्थिरतः - अपुनःकरणतयाऽभिगच्छेत्-प्रतिपद्येत, चोदितश्च प्रतिचोदयेद्, असम्यक् प्रतिपद्यमानश्चासौ संसारस्रोतसा 'नीयमान' उह्यमानोऽनुशास्यमानः कुपितोऽसौ न संसारार्णवस्य पारगो भवति । यदिवाऽऽचार्यादिना सदुपदेशदानतः प्रमादस्खलितनिवर्तनतो मोक्षं प्रति नीयमानोऽप्यसौ संसार समुद्रस्य तदकरणनोऽपारग एव भवतीति ॥७॥ टीकार्थ गुरु के सान्निध्य में रहता हुआ साधु यदि किसी विषय में प्रमाद के कारण स्खलनाभूल करे तो उससे वय में अथवा दीक्षापर्याय में छोटा साधु प्रमाद करने का प्रतिषेध करता है अथवा श्रुत शास्त्र ज्ञान में या उम्र में बड़ा साधु उसे वैसा करने से रोकता है, उसे अनुशासित करता है कहता है कि आप जैसे पुरुष के लिये ऐसा प्रमादपूर्ण आचरण करना उचित नहीं है अथवा रत्नाधिक- प्रव्रज्या के पर्य्याय में ज्येष्ठ या शास्त्र ज्ञान में विशिष्ट अथवा समवयस्क - समान आयु का साधु उसे अनुशासित करता है, प्रमाद न करने को प्रेरित करता है तो वैसा किये जाने पर वह साधु यदि अनुशासित करने वाले पर क्रोध करता है और कहता है - मैं उत्तम कुल में उत्पन्न हुआ हूं । सब लोगों द्वारा सम्मानित हूं मुझ जैसे को यह तुच्छ प्राणी इस प्रकार अनुशासित कर रहा है- सीख दे रहा है। इस प्रकार अनुशासित किये जाने पर वह अपने आचरण के लिये मिच्छामिदुक्कडं नहीं कहता तथा सम्यक् उत्थान से उचित नहीं होता- अपने वास्तविक - साधुत्वानुकूल स्वरूप में नहीं आता, दिये गये अनुशासन में स्थिर नहीं होता। मैं फिर वैसा नहीं करूंगा, ऐसा स्वीकार नहीं करता । प्रेरणा देने वाले को प्रतिप्रेरणा देता है शिक्षा देने लगता है तो वह साधु संसार के स्रोत में बहता जाता हैअनुशासित करने पर कुपित होता है । अतः वह संसार समुद्र को पार नहीं कर सकता अथवा आचार्य आदि उसे उत्तम उपदेश द्वारा प्रमादवश स्खलना न करने की प्रेरणा देकर मोक्ष की ओर ले जाने का उपक्रम करते हैं किन्तु वह उनके अनुशासन के अनुरूप नहीं चलता । अतः संसार समुद्र को वह पार नहीं कर पाता । ❀❀❀
विउट्ठितेणं समयाणुसिद्वे, डहरेण वुड्ढेण उ चोइए य । अच्चुट्टियाए घडदासिए वा, अगारिणं वा समयासि ॥८॥
छाया
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व्युत्थितेन समयानुशिष्टो दहरेण वृद्धेन तु चोदितश्च । अत्युत्थितया घटदास्यावाऽगारिणां वा समयानुशिष्टः ॥
अनुवाद - व्युत्थित-शास्त्र प्रतिकूल कार्यकारी गृहस्थ आदि द्वारा, अवस्था में छोटे या बड़े द्वारा अथवा अत्यन्त छोटे कार्य करने वाली घट दासी- पनिहारिन तक द्वारा यदि साधु को सद् आचरण की प्रेरणा दी जाय तो भी उसे क्रोध नहीं करना चाहिये ।
टीका साम्प्रतं स्वपक्षचोंदनानन्तरत: (रं) स्वपरचोदनामधिकृत्याह-विरुद्धोत्थानेनोत्थितो व्युत्थितः - परतीर्थिको गृहस्थो वा मिध्यादृष्टिस्तेन प्रमादस्खलिते चोदितः स्वसमयेन तद्यथा - नैवंविधमनुष्ठानं भवतामाग व्यवस्थितं येनाभिप्रवृत्तोऽसि यदिवा व्युत्थितः - संयमाद्भष्टस्तेनापरः साधुः स्खलितः सन् स्वसमयेनअर्हत्प्रणीतागमानुसारेणानुशासितो मूलोत्तरगुणाचरणे स्खलितः सन् 'चोदित' आगमं प्रदर्श्याभिहितः, तद्यथानैतत्त्वरितगमनादिकं भवतामनुज्ञातमिति, तथा अन्येन वा मिथ्यादृष्ट्यादिना 'क्षुल्लकेन' लघुतरेण वयसा वृद्धेन वा कुत्सिताचारप्रवृत्तश्चोदितः, तुशब्दात्समानवयसा वा तथा अतीवाकार्यकरणं प्रति उत्थिता अत्युत्थिताः, यदि वा - दासीत्वेन अत्यन्तमुत्थिता दास्या अपि दासीति, तामेव विशिनष्टि - 'घटदास्या' जलवाहिन्यापि चोदितो न
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