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श्री सूत्रकृताङ्ग सूत्रम् विधत्ते तत्र सम्यक् प्रत्युपेक्षणादिकां क्रियां करोति, कायोत्सर्गं च मेरुरिव निष्प्रकम्पः शरीर निःस्पृहो विधत्ते, तथा शयनं च कुर्वन् प्रत्युपेक्ष्य संस्तारकं तद्भुवं कार्य चोदितकाले गुरुर्भिरनुज्ञातः स्वपेत्, तत्रापि जाग्रदिव नात्यन्तं नि:सह इति । एवमासनादिष्वति तिष्ठता पूर्ववत्संकुचितगात्रेण स्वाध्यायध्यानपरायणेन,सुसाधुना भवितव्यामिति, तदेवमादिसुसाधुक्रियायुक्तो गुरुकुल निवासी सुसाधुर्भवतीति स्थितम् । अपिच-गुरुकुलवासे निवसन् पञ्चसु समितिष्वीर्यासमित्यादिषु प्रविचाररुपासु तथा तिसृषु च गुप्तिषु प्रविचाराप्रविचाररूपासु आगता-उत्पन्ना प्रज्ञा यस्यासावागतप्रज्ञः-संजातकर्त्तव्यविवेकः स्वतो भवति, परस्यापि च 'व्याकुर्वन्' कथयन् पृथक् पृथग्गुरोः प्रसादातापरिज्ञातस्वरूपः समितिगुप्तीनां यथावस्थितस्वरूपप्रतिपालनं तत्पलं च ‘वदेत्' प्रतिपादयेदिति ॥५॥
टीकार्थ - संसार से निर्विण्ण-विरक्त होकर प्रव्रजित पुरुष सदा गुरुकुल में वास करने से स्थान, शयन, आसन तथा पराक्रम-तपश्चरण में सम्यक् यत्नशील रहता हुआ उत्तम साधु के सदृश आचरण करता है । श्रेष्ठ साधु जहां कायोत्सर्ग आदि करता है उस स्थान को वह भली भांति देखकर-प्रमार्जित कर कायोत्सर्ग करता है । कायोत्सर्ग में वह मेरु के सदृश निष्प्रकम्प रहता है । शरीर में स्पृहा-आकांक्षा नहीं रखता । शयन बेला में वह भली भांति प्रत्युपेक्षणा कर-आस्तरण, भूमि तथा अपने शरीर का समीक्षण कर गुरु की अनुज्ञा से शास्त्र प्रतिपादित समय में सोता है । सोता हुआ भी वह जागृत के सदृश रहता है, बेभान नहीं होता । इसी प्रकार आसनादि पर जो बैठता है तो वह अपने शरीर को संकुचित कर भली भांति सिकोड कर बैठता है, स्वाध्याय व ध्यान में परायण रहता है । गुरुकुल में निवास करने वाला साधु इस प्रकार श्रेष्ठ साधु की क्रिया में समायुक्त होता है । गुरुकुल में रहता हुआ वह ईर्या आदि प्रविचार रूप पांच समितियों में तथा प्रविचार-अप्रविचार रूप तीन गुप्तियों में कर्त्तव्य विवेक युक्त होता है । गुरु के प्रसाद-अनुग्रह से समितियों और गुप्तियों के स्वरूप को भली भांति जान लेता है। उनका यथावत रूप में-यथाविधि परिपालन करता है एवं उनके फल का-लाभ का औरों को उपदेश देता है ।
सहाणि सोच्चा अदु भेरवाणि, अणासवे तेसु परिव्वएज्जा । .. निदं च भिक्खू न पमाय कुजा, कहं कहं वा वितिगिच्छतिन्ने ॥६॥ छाया - शब्दान् श्रुत्वाऽथभैरवान् अनाश्रवस्तेषु परिव्रजेत् ।
निद्राञ्चभिक्षुर्न प्रमादं कुर्य्यात्, कथं कथं वा विचिकित्सातीर्णः ॥ अनुवाद - अनाश्रव-आश्रव रहित, ईर्या आदि समितियों तथा गुप्तियों से युक्त साधु मधुर-कर्ण प्रिय तथा भैरव-भयंकर शब्दों का श्रवण कर राग-द्वेष न करे । वह निद्रामूलक प्रमाद का सेवन न करे तथा यदि किसी विषय में विचिकित्सा-शंका उत्पन्न हो तो गुरु से पूछ कर समाधान प्राप्त करे।
____टीका - ईर्या समितित्याद्युपेतेन यद्विधेयं तद्दर्शयितुमाह-'शब्दान्' वेणुवीणादिकान् मधुरान् श्रुतिपेशलान् 'श्रुत्वा' समाकाथवा 'भैरवान्' भयावहान् कर्णकटूनाकर्ण्य शब्दान् आश्रवति तान् शोभनत्वेन वा गृह्णातीत्याश्रवो नाश्रवोऽनाश्रवः, तेष्वनुकूलेषु प्रतिकूलेषु श्रवण पथमुपगतेषु शब्देष्वनाश्रवो-मध्यस्थो रागद्वेषरहितो भूत्वा परिसमन्ताद् व्रजेत्-संयमानुष्ठायी भवेत्, तथा 'निद्रांच' निद्राप्रमादं च 'भिक्षुः' सत्साधुः प्रमादाङ्गत्वान्न कुर्यात्, एतदुक्तं भवति-शब्दाश्रवनिरोधेन विषयप्रमादो निषिद्धो निद्रानिरोधेन च निद्राप्रमादः, च शब्दादन्यमपि प्रमादं विकथा
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