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ग्रन्थनामकं अध्ययनं
श्रेयो मन्यते, एवं तेनाप्यसदनुष्ठायिना चोदितेन न कुपितव्यम्, अपितु ममायमनुग्रह इत्येवं मन्तव्यं, यदेतद् बुद्धाः सम्यगनुशासयन्ति सन्मार्गेऽवतारयन्ति पुत्रमिव पितरः तन्ममैव श्रेय इति मन्तव्यम् ॥१०॥
टीकार्थ सूत्रकार इसी तथ्य को दृष्टान्त द्वारा प्रकट करते हुए कहते हैं-घोर अटवी में - भयानक जंगल में दिग्भ्रम हो जाने से कोई व्याकुलितमति हो गया हो - घबरा उठा हो सही रास्ता भूल गया हो, तब कतिपय अन्य पुरुष जो सत् असत्-ठीक बेठीक मार्ग को जानते हों दया से आकृष्ट होकर उसे कुमार्ग से हटाकर वह रास्ता बतलाये जो समग्र विघ्नों से रहित तथा अभिप्सित स्थान तक पहुंचाने वाला हो। वह उन सत् असत् का विवेक रखने वाले पुरुषों द्वारा सन्मार्ग पर पहुंचा दिये जाने पर अपना कल्याण मानता है । इस प्रकार असद् आचरणशील पूर्वोक्त पुरुष यदि किसी द्वारा प्रेरित किया जाये तो उसे उन पर क्रोध नहीं करना चाहिये । इसने मुझ पर अनुग्रह किया है, यह मानना चाहिये । जिस प्रकार पिता पुत्र को सम्यक् अनुशासित करते हैं, सत् शिक्षा प्रदान करते हैं, सन्मार्ग पर लाते हैं, इसी प्रकार जिन ज्ञानीजनों द्वारा मुझे शिक्षा दी गई उसमें भी मेरा कल्याण है ।
अह तेण मूढेण अमूढगस्स कायव्व पूया सविसेसजुत्ता । एओवमं तत्थ उदाहु वीरे, अणुगम्म अत्थं उवणेति सम्मं ॥ ११ ॥
छाया
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अथ तेन मूढ़ेनामूढ़स्स कर्त्तव्या पूजा सविशेषयुक्ता । एतामुपमां तत्रो दाहृतवान् वीरः, अनुगम्यार्थमुपनयति सम्यक् ॥
अनुवाद - मूढ़ - मार्गभ्रष्ट पुरुष अमूढ-मार्ग बताने वाले विज्ञजन की विशेष रूप से पूजा-सत्कार करता है । उसी प्रकार सन्मार्ग बताने वाले पुरुष का वह साधु जो संयम में च्युत हो रहा था विशेष रूप से सत्कार करे । उसके उपदेश का अनुगमन करता हुआ उसका उपकार माने । भगवान महावीर ने इस संदर्भ में यह उपमा-दृष्टान्त उदाहृत किया- उपस्थापित किया ।
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टीका - पुनरप्यस्यार्थस्य पुष्ट्यर्थमाह- 'अथे' त्यानन्तर्यार्थे वाक्योपन्यासार्थे वा, यथा 'तेन' मूढ़ेन सन्मार्गावतारितेन तदनन्तरं तस्य 'अमूढस्य' सत्पथोपदेष्टुः पुलिन्दादेरपि परमुपकारं मन्यमानेन पूजा विशेषयुक्ता कर्त्तव्या, एवमेतामुपमाम् 'उदाहृतवान्' अभिहितवान् वीरः तीर्थंकरोऽन्यो वा गणधरादिकः 'अनुगम्य' बुद्धवा 'अर्थ' परमार्थं चोदनाकृतं परमोपकारं सम्यगात्मन्युपनयति, तद्यथा - अहमनेन मिथ्यात्वनाज्जन्मजरामरणाद्यनेकोपद्रवबहुलात्सदुपदेशदानेनोत्तारितः, ततो मयाऽस्य परमोपकारिणोऽभ्युत्थानविनयादिभिः पूजा विधेयेति । अस्मिन्नथ बहवो दृष्टान्ताः सन्ति, तद्यथा -
‘‘गेहंमि अग्निजालाउलंमि जह णाम डज्झमाणंमि । जो बोहेइ सुयंतं सो तस्स जणो परमबंधू ॥१॥ जह वा विससंजुत्तं भत्तं निद्धमिह भोतुकामस्स । जो वि सदोसं साहइ सो तस्स जणो परम बंधू ॥२॥ " छाया - गृहेऽग्नि ज्वालाकुले यथा नाम दह्यमाने । यो बोधयति सुप्तं स तस्य जनः परम बान्धवः ॥ १ ॥ यथा विषसंयुक्तभक्तंस्निग्धंइह मौक्तुकामस्य योऽपि सदोषं साधयति से तस्य परम बन्धुर्जनः ॥२॥ ॥११॥ टीकार्थ - इसी अर्थ की परिपुष्टि - दृढ़ता हेतु सूत्रकार कहते हैं - यहां 'अथ' शब्द का प्रयोग पश्चात् के अर्थ में या वाक्य के उपन्यास- प्रारंभ के अर्थ में आया है। जैसे सन्मार्ग में अवतारित - लाये गये अज्ञ पुरुष
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