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ग्रन्थनामक अध्ययन क्रोधं कुर्यात, एतदुक्तं भवति अत्युत्थितयाऽतिकुपितयाऽपि चोदितः स्वहितं मन्यमानः सुसाधुर्न कुप्येत्, किं पुनरन्येनेति ? तथा 'अगारिणां' गृहस्थानांयः 'समयः अनुष्ठानं तत्समयेनानुशासितो, गृहस्थानामपि एतन्न युज्यते कर्तुं यदारब्ध भवतेत्येयवमात्मावमेनापि चोदितो ममैवैतच्छ्रेय इत्येवंमन्यमानो मनागपि न मनो दूषयेदिति॥८॥ एतदेवाह___टीकार्थ - अपने पक्षवर्ती साधुओं द्वारा प्रदत्त अनुशासन का प्रतिपादन करने के पश्चात् अपने तथा सरे पक्षवर्ती जनों द्वारा दिये जाने वाले अनुशासन के सम्बन्ध में सूत्रकार कहते हैं-विरुद्धोत्थापेनोत्थित-शास्त्र विरुद्ध कार्यकारी व्युत्थित कहलाते हैं । परतीर्थी, गृहस्थ और मिथ्यादृष्टि इनमें आते हैं । वे साधु द्वारा प्रमादवश भूल हो जाने पर उसे स्वसमय-साधु द्वारा स्वीकृत दर्शन के अनुसार प्रेरणा दे तथा कहे कि आपके आगमशास्त्र में ऐसे अनुष्ठान-आचरण का विधान नहीं है जो आप कर रहे हैं अथवा संयम के पतित कोई साधु किसी दूसरे साधु को जो व्रत पालन में स्खलित हो रहा हो, तीर्थंकर प्रणीत आगमों के अनुसार मूल गुणों एवं उत्तर गुणों के आचरण से विचलित उस साधु को प्रेरणा दे । आगम को उद्धृत कर कहे कि-तेज गति से चलना आदि आचरण आपके लिए अनुज्ञात-शास्त्र अनुमोदित नहीं है। तथा दूसरा कोई मिथ्या दृष्टि, वय में कनिष्ठ अथवा ज्येष्ठ पुरुष कुत्सित-अशुभ या निन्दित आचार में प्रवृत्त साधु को सदाचरण की प्रेरणा दे। यहां 'तु' शब्द द्वारा सूचित समवयस्क-अपने समान उम्र का पुरुष भी प्रेरणा दे-अतीव अकार्य करते हुए देखकर प्रेरणा देने हेतु उद्यत अथवा दासी होने के नाते अत्यन्त उत्थित कार्य करने में बेहद उतावली, अतीव अकार्य एवं तुच्छ कार्य करने में निरत घट दासी-जलवाहिनी या पनिहारिन भी उसे सदाचरण की प्रेरणा दे तो वह साधु क्रोध न करे । कहने का तात्पर्य यह है कि वह दासी भी यदि उसे अनाचरणशील देख अत्यन्त कुपित होकर सदाचरण की प्रेरणा दे तो वह साधु उसे अपने लिये हितप्रद मानता हुआ, कुपित न हो, फिर अन्य किसी के द्वारा तो उपदेश दिये जाने पर कुपित होने की बात ही क्या है । गृहस्थों के समय-परम्परा या सद्व्यवहार के अनुसार उसे कोई अनुशासित करता हुआ कहे कि जो आप कर रहे है, वह तो गृहस्थों के लिये भी समुचित नहीं होता । इस प्रकार तिरस्कार के साथ भी यदि उसे सदाचार की ओर प्रेरित किया जाये तो वह यह समझता हुआ कि मेरे लिये यह श्रेयस्कर है, मन में जरा भी विकार न लाये । इसी बात को और कहते हैं -
ण तेस कुज्झे णय पव्वहेजा, ण यावि किंची फरुसं वदेजा। तहा करिस्संति पडिस्सुणेजा, सेयं खु मेयं ण पमाय कुज्जा ॥९॥ .. छाया - न तेषु क्रुध्येन्न च प्रव्यथयेन्न चाऽपि किञ्चित्परुषं वदेत् ।
_____ तथा करिष्यामीति प्रतिशृणुयात्, श्रेयः खलुममेदं न प्रमादं कुर्यात् ॥
अनुवाद - पहले कहे अनुसार जो साधु को प्रेरित करे, शिक्षा दे, उन पर वह क्रोध न करे। उन्हें व्यथा-पीड़ा न दे तथा परुष-कठोर वचन न कहे । मैं ऐसा ही करूंगा, ऐसी प्रतिज्ञा करे, इसी में मेरा श्रेयकल्याण है, यह सोचकर वह प्रमाद न करे-असावधानी न बरते ।
टीका - 'तेषु' स्वपरपक्षेषु स्खलित चोदकेष्वात्महितं मन्यमानो न क्रुध्येद् अन्यस्मिन् वा दुर्वचनेऽभिहिते न कुप्येद् एवं च चिन्तयेत्
'आक्रुष्टेन मतिमता तत्त्वार्थविचारणे मतिः कार्या । यदि सत्यं कः कोपः ? स्यादनृतं किं नु कोपेन ? ॥१॥
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