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जहा
श्री सूत्रकृताङ्ग सूत्रम् दियापोतमपत्तजातं, सावासगा पविउं मन्नमाणं । तमचाइयं तरुणमपत्तजातं, ढंकाइ अव्वत्तगमं
हरेज्जा ॥२॥
छाया यथा द्विजपोत मपत्रजातं स्वावास कात् प्लवितुं मन्यमानम् । तमशक्नुवन्तं तरुणमपत्रजातं ढङ्कादयोऽव्यक्तगमं हरेयुः ॥
अनुवाद अपत्रजात-जिसके अभी पंख नहीं निकले हैं, ऐसा द्विजपोत- पक्षी का बच्चा जैसे उड़कर अपने घोंसले से दूर जाना चाहता है, उड़ने में सशक्त नहीं होता, व्यर्थ ही पंखों को फडफडाता है, वह ढंक आदि आमिषभक्षी पक्षियों द्वारा मार डाला जाता है । इसी प्रकार जो साधु आचार्य के आदेश बिना एकाकी विचरणशील होता है, वह नष्ट हो जाता है ।
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टीका य पुनराचार्यौपदेशमन्तरेण स्वच्छन्दतंया गच्छान्निर्गत्य एकाकिविहारितां प्रतिपद्यते स च बहुदोषभाग् भवतीत्यस्यार्थस्य दृष्टान्तमाविर्भावयन्नाह - ' यथे 'त्ति दृष्टान्तोप्रदर्शनार्थः 'यथा' येन प्रकारेण 'द्विजपोत' पक्षिशिशुरव्यक्तः, तमेव विशिनष्टि - पतन्ति - गच्छन्ति येनेति पत्रं - पक्षपुटं न विद्यते पत्रजातं - पक्षोद्भवो यस्यासावपत्रजातस्तं तथा स्वकीयादावासकात् - स्वनीडात् प्लवितुम् - उत्पतितुं मन्यमानं तत्र तत्र पतन्तमुपलभ्य तं द्विजपोतं 'अचाइयं' ति पक्षाभावाद्गन्तुमसमर्थमपत्रजातमितिकृत्वा मांसपेशी कल्पं 'ढङ्कादयः' क्षुद्रसत्वाः पिशिताशिन: 'अव्यक्तगमं' गमनाभावे नंष्टुमसमर्थं हरेयुः ' चञ्च्वादिनोत्क्षिप्य नयेयुर्व्यापादयेयुरिति ॥२॥
टीका साधु आचार्य के उपदेश के बिना - अनुज्ञा के बिना स्वच्छन्दतापूर्वक संघ से निर्गत होकर एकाकी विहरणशील होता है, वह अनेक दोषों का भागी बनता है । इस संबंध में दृष्टान्त उपस्थित करते हुए सूत्रकार कहते हैं - यहां प्रयुक्त 'यथा' शब्द दृष्टान्त को सूचित करने हेतु है । जिस प्रकार एक पक्षी का बच्चा जो अव्यक्त- अविकसित, उड़ने में अयोग्य है, उसकी विशेषता बतलाते हुए कहते हैं- जिस द्वारा पक्षी उड़ते हैं उसे पत्र - पक्षपुट या पंख कहा जाता है । जिसके अब तक पंख नहीं निकले हैं वह पक्षी का बच्चा अपने आवास से घोंसले से उड़ने का उपक्रम करता है, उसको उड़ते हुएगिरते पड़ते देखकर तथा पंखों के न निकलने के कारण भली भांति उड़ने में असमर्थ जानकर उसको मांसपेशी-मांस के लोथड़े के समान समझकर ढंक आदि मांस भक्षी शुद्र प्राणी, वह दौड़कर छिप नहीं पाता अतः उसका हरण कर लेते हैं । उसे चोंच आदि द्वारा उठाकर ले जाते हैं और मार डालते हैं।
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एवं तु सेहंपि अपुटुधम्मं, निस्सारियं दियस्स छायं व अपत्तजायं, हरिंसु णं
छाया
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बुसिमं मन्नमाणा । पावधम्मा अगे ||३||
एवन्तु शिष्यमप्यपुष्टधर्माणं, निःसारितं वश्यं मन्यमानाः । द्विजस्य शावमिवापत्रजातं हरेयुः पापधर्माणोऽनेके ॥
अनुवाद - जैसे पंख विहीन पक्षी के बच्चे को ढ़ंक आदि हिंसक पक्षी हर लेते हैं- मार डालते हैं, उसी प्रकार जो शिष्य धर्म में अपुष्ट - अपरिपक्व है नि:सारित होकर एकाकी विचरण करता है, उसे बहुत से पाखण्डी अपने वश में कर बहका-फुसलाकर धर्म से भ्रष्ट कर डालते हैं ।
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