Book Title: Sutrakritang Sutra
Author(s): Sudarshanlal Acharya, Priyadarshan Muni, Chhaganlal Shastri
Publisher: Shwetambar Sthanakvasi Jain Swadhyayi Sangh

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Page 595
________________ ग्रन्थनामकं अध्ययनं ग्रन्थनामकं चतुर्थशमध्ययनं गंथं विहाय इण सिक्खमाणो, उट्ठाय सुबंभचेरं वसेज्जा । ओवायकारी विणयं सुसिक्खे, जे छेय विप्पमायं न कुज्जा ॥ १ ॥ छाया ग्रन्थं विहायेह शिक्षमाणः, उत्थाय सुब्रह्मचर्य्यं वसेत् । अवपातकारी विनयं सुशिक्षेत्, यच्छेका प्रमादं न कुर्य्यात् ॥ - अनुवाद ग्रन्थ-परिग्रह का परित्याग कर शिक्षा प्राप्त करता हुआ पुरुष उत्थित दीक्षित होकर भली भांति ब्रह्मचर्य-संयम का पालन करे । वह आचार्य के आदेश का परिपालन करता हुआ विनय की शिक्षा ले। छेक - विज्ञ या निपुण पुरुष संयम में कभी प्रमाद न करे । टीका 'इह' प्रवचने ज्ञातसंसारस्वभावः सन् सम्यगुत्थानेनोत्थितो ग्रथ्यते आत्मा येन स ग्रन्थो - धनधान्य- हिरण्यद्विपदचतुष्पदादि 'विहाय' त्यक्त्वा प्रव्रजितः सन् सदुत्थानेनोत्थाय च ग्रहणरूपामासेवनारूपां च शिक्षां (च) कुर्वाणः- सम्यगासेवमानः सुष्ठु - शोभनं नवभिर्ब्रह्मचर्यगुप्तिभिर्गुप्तमाश्रित्य ब्रह्मचर्य 'वसेत्' तिष्ठेत् 'सुब्रह्मचर्य' मिति संयमस्तम् आवसेत् तं सम्यं कुर्यात् आचार्यान्तिके यावज्जीवं वसमानो यावदभ्युद्यतविहारं न प्रतिपद्यते तावदाचार्यवचनस्यावपातो-निर्देशस्तत्कार्यवपातकारीवचन निर्देशकारी सदाऽऽज्ञाविधायी, विनीयतेअपनीयते कर्म येन स विनयस्तं सुष्ठु शिक्षेद् - विदध्यात् ग्रहणासेवनाभ्यां विनयं सम्यक् परिपालयेदिति । तथा यः ‘छेको' निपुणः स संयमानुष्ठाने सदाचार्योपदेशे वा विविधं प्रमादं न कुर्यात्, यथा हि आतुरः सम्यग्वैद्योपदेशं कुर्वन् श्लाघां लाभते रोगोपशमं च एवं साधुरपि सावद्यग्रन्थपरिहारी पापकर्मभेषजस्थानभूतान्याचार्यवचनानि विदधदपरसाधुभ्यः साधुकार म शेष कर्मक्षयं चावाप्नोतीति ॥ १ ॥ टीकार्थ - जिसने जगत के स्वभाव को परिज्ञात किया है-जान लिया है, वह पुरुष सम्यक् उत्थानआत्मकल्याण हेतु उत्थित - समुद्यत होकर धन, धान्य, सुवर्ण, द्विपद, चतुष्पद आदि परिग्रह का जिससे आत्माग्रथितसंसार के जाल में बद्ध होती है-गूंथी जाती है, परित्याग करे । वह प्रव्रजित होकर आत्मोत्थान के पथ पर अग्रसर होकर ग्रहण रूप एवं आसेवन रूप शिक्षा का सम्यक् परिपालन करता हुआ, नव गुप्तियों से गुप्त - अभिरक्षित उत्तम ब्रह्मचर्य का पालन करे अथवा संयम को सुब्रह्मचर्य कहा जाता है । उसका वह भली भांति अनुसरण करे । यह यावज्जीवन आचार्य के सान्निध्य में निवास करता हुआ, जब तक वह अभ्युद्यत विहारएकाकी विहार की प्रतिमा स्वीकार न करे तब तक आचार्य के निर्देश-वचन निर्देश का अनुसरण करे, उनकी आज्ञानुसार कार्य करे, जिससे कर्म विनीत या अपनीत होता है - हटाया जाता है दूर किया जाता है उसे विनय कहा जाता है। उसका वह भली भांति शिक्षण प्राप्त करे। ग्रहण शिक्षा एवं आसेवन शिक्षा द्वारा उसका सम्यक्परिपालन करे । इस प्रकार जो पुरुष छेक - कुशल या विज्ञ है, वह संयम के अनुपालन में तथा आचार्य के उपदेश मेंउपदेशानुसार चलने में कभी भी किसी प्रकार का प्रमाद न करे । जैसे रुग्ण पुरुष वैद्य के उपदेश - निर्देश का पालन करता हुआ प्रशंसित होता है- रोगमुक्त होता है, इसी प्रकार साधु सावद्यकार्यों का परिहार कर पाप कर्म के लिये औषधि के तुल्य आचार्य के वचनों का पालन करता हुआ अन्य साधुओं के द्वारा साधुकार-साधुवाद का पात्र होता है और वह मोक्ष प्राप्त करता है जो समस्त कर्मों के क्षय का परिणाम है । 567

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