Book Title: Sutrakritang Sutra
Author(s): Sudarshanlal Acharya, Priyadarshan Muni, Chhaganlal Shastri
Publisher: Shwetambar Sthanakvasi Jain Swadhyayi Sangh

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Page 594
________________ श्री सूत्रकृताङ्ग सूत्रम् 'निधाय' परित्यज्य, प्राणात्ययेऽपि याथातथ्यं धर्म नोल्लङ्घयेदिति । एतदेव दर्शयति-'जीवितम्' असंयमजीवितं दीर्घायुष्कं वा स्थावरजङ्गमजन्तुदण्डेन नाभिकांक्षी स्या (क्षे) त् परीषहपराजितो वेदनासमुद्घात (समव) हतो वा तद्वेदनाम (भि) सहमानो जलानलसंपातापादितजन्तूपमर्दैन नापि मरणाभिकाङ्क्षी स्यात् । तदेवं याथातथ्यमुत्प्रेक्षमाणः सर्वेषु प्राणिषुपरतदण्डो जीवितमरणानपेक्षी संयमानुष्ठानं चरेद-उद्युक्तविहारी भवेत् 'मेधावी' मर्यादाव्यवस्थितो विदितवेद्यो वा वलयेन-मायारूपेण मोहनीय-कर्मणा वा विविधं प्रकर्षेण मुक्तो विप्रमुक्त इति ।। इतिः परिसमाप्त्यर्थे ब्रवीमीति पूर्ववत् ॥२३॥ समाप्तं च याथातथ्यं त्रयोदशमध्ययनमिति ॥ ____टीकार्थ - शास्त्रकार समग्र अध्ययन का उपसंहार करते हुए कहते हैं-जो जैसा है, उसका वैसा भाव याथातथ्य कहा जाता है । साधु धर्म, मार्ग तथा समोसरण नामक तीन अध्ययनों में वर्णित तत्त्व सम्यक्त्व एवं चारित्र का सूत्रानुगत-सूत्रानुरूप प्रेक्षण-पर्यालोचन करता हुआ उत्तम अनुष्ठान-उद्यम द्वारा सूत्र का अभ्यास करता हुआ, स्थावर एवं जंगम तथा सूक्ष्म और बादर भेदयुक्त पृथ्वीकाय आदि प्राणियों का जिससे नाश हो, उस दण्ड-प्राणव्ययरोपण रूपहिंसा का त्याग कर प्राण चले जाने की स्थिति आ जाये तो भी सत्य धर्म का लंघन न करे । शास्त्रकार इसी बात का दिग्दर्शन कराते हैं-साधु असंयम जीवन-असंयम के साथ जीने की तथा स्थावर एवं जंगम प्राणियों की हिंसा के साथ दीर्घ जीवन की अभिकांक्षा न करे । वह परीषह से पराजित-परिश्रान्त होकर अनेक वेदनाओं-पीड़ाओं से अभिहत होकर उन्हें सहने में अपने को अक्षम मानता हुआ पानी में डूबकर, अग्नि में जलकर अथवा किसी हिंसक जन्तु द्वारा अपना उपमर्द-व्यापादन कराकर मृत्यु की आकांक्षा न करे। इस प्रकार वह सत्यधर्म का उत्प्रेक्षण करता हुआ-उस पर दृष्टि रखता हुआ, सब प्राणियों की हिंसा से उपरत तथा जीवन एवं मृत्यु से निरपेक्ष-अपेक्षा रहित होकर संयम का अनुसरण करे-संयम के परिपालन में उद्यत रहे । मेधावी-शास्त्रीय मर्यादाओं के अनुरूप-व्यवस्थित विहरणशील तथा विदितवेद्य-जानने योग्य पदार्थों का वेत्ता साधु माया रूपात्मक मोहनीय कर्म से विप्रमुक्त-सर्वथा विमुक्त होकर विचरण शील रहे । यहां 'इति' शब्द समाप्ति के अर्थ में है । ब्रवीमि-बोलता हूं यह पहले की ज्यों है । यह याथातथ्य नामक तेरहवां अध्ययन समाप्त हुआ । 566)

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