Book Title: Sutrakritang Sutra
Author(s): Sudarshanlal Acharya, Priyadarshan Muni, Chhaganlal Shastri
Publisher: Shwetambar Sthanakvasi Jain Swadhyayi Sangh

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Page 592
________________ श्री सूत्रकृताङ्ग सूत्रम् टीका - 'धीरः' अक्षोभ्यः सद्बुद्धयलङकृतो वा देशनावसरे धर्मकथाश्रोतुः 'कर्म' अनुष्ठानं गुरुलघु कर्मभावंतातथा 'छन्द' अभिप्रायं सम्यक् 'विवेचयेत्' जानीयात्, ज्ञात्वा च पर्षदनुरूपामेव धर्मकथिको धर्म देशनां कुर्यात् सर्वथा यथा तस्य श्रोतुर्जीवादिपदार्थावगमो भवति यथा च मनो न दूष्यते, अपि तु प्रसन्नतां व्रजति, एतदभिसंधिमानाह-विशेषेण नयेद्-अपनयेत् पर्षदः पापभवम्' अशुद्धमन्त:करणं, तुशब्दाद्विशिष्टगुणारोपण च कुर्यात्, 'आयभावं ति क्वचित्पाठः, तस्यायमर्थः-'आत्मभावंः' अनादिभवाभ्यस्तो मिथ्यात्वादिकस्तमपनयेत्, यदिवाऽऽत्मभावोविषयगृघ्नुताऽतस्तमपनयेदिति । एतद्दर्शयति-'रूपैः' नय न मनोहारिभिः स्त्रीणामङ्गप्रत्यङ्गार्द्धकटाक्षनिरीक्षणादिभिरल्पसत्त्वा 'विलुप्यन्ते' सद्धर्माद्वाध्यन्ते, किंभूतै रूपैः ? 'भयावहै:' भयमावहन्ति भयावहानि, इहैव तावद्रूपादिविषयासक्तस्य साधुजनजुगुप्सा नानाविधाश्च कर्णनासिकाविकर्तनादिका विडम्बनाः प्रादुर्भवन्ति जन्मान्तरे च तिर्यङ्नरकादिके यातनास्थाने प्राणिनो विषयासक्ता वेदनामनुभवन्तीत्येवं विद्वान्' पण्डितो धर्मदेशनाभिज्ञो गृहीत्वा पराभिप्रायं-सम्यगवगम्य पर्षदं त्रसस्थावरेभ्यो हितं धर्ममाविर्भावयेत् ॥२१॥ टीकार्थ – धीर-अक्षोभ्य-क्षुब्ध नहीं होने वाला, सद्बुद्धि से अलंकृत-श्रेष्ठ बुद्धि से सुशोभित पुरुष धर्मदेशना के अवसर पर धर्मोपदेश सुनने वाले पुरुष के कर्म-आचरण अथवा उसके गुरु लघु कर्म भाव-यह पुरुष गुरु कर्मा है या लघु कर्मा है, उसका भाव कैसा है-यह भली भांति जाने, जानकर परीषद्-धर्मसभा के अनुरुप धर्म का कथन करे-धर्म देशना दे । जिससे श्रोता को जीवादि पदार्थों का अवगम-बोध हो तथा उनका मन दूषित-विकृत या व्यथित न हो किंतु प्रसन्नता पाए । इसकी अभिसंधि-अभिप्राय प्रकट करते हुए सूत्रकार कहते हैं-परिषद के श्रोताओं के अन्त:करण के अशुद्ध भाव को अपनीत-दूर करे । यहां आये हुए 'तु' शब्द से यह सूचित है कि उसमें विशिष्ट गुणों का आरोपण-संस्थापन करे। कहीं 'आयभावं' ऐसा पाठ प्राप्त होता है । उस का यह आशय है कि अनादि काल से अभ्यस्त-मिथ्यात्व आदि आत्मभाव जिसे अपना रखा है, साधु उपदेश द्वारा दूर करे । अथवा विषयों में-भोगों में आसक्तियां लोलुपता को आत्मभाव कहा जाता है । साधु उसे दूर करे । शास्त्रकार इसका दिग्दर्शन कराते हुए कहते हैं-स्त्रियों के नयन-मनोहर नेत्रों को तथा मन को आकृष्ट करने वाले अंग प्रत्यंग, अर्द्ध कटाक्ष निरीक्षण-टेढी निगाहों से अवलोकन आदि द्वारा अल्प सत्व-अल्प आत्म पराक्रम विहीन जीव, धर्म से विलुप्त-पतित हो जाते हैं । किस प्रकार के रूपों द्वारा ? उत्तर में कहा जाता है-भयावह रूपों द्वारा । जो भय का आह्वान करते हैं-भय उत्पन्न करते हैं उन्हें भयावह कहा जाता है । स्त्री के रूप आदि विषयों में जो आसक्त-लोलुप होता है इस लोक में वह सतपुरुषों द्वारा निन्दित होता है । वह कान नाक आदि काट लिये जाने तक की विडम्बनाएं-यातनाएं प्राप्त करता है । जन्मान्तर-आगे के जन्म में वह नरक एवं तिर्यंच आदि यातना स्थानों में उत्पन्न होकर कष्ट भोगता है । धर्म देशना देने में कुशल विद्वान् पुरुष दूसरे के अभिप्राय-अन्तर्भाव को भलीभांति अवगत कर धर्म का उपदेश करे जो त्रस एवं स्थावर प्राणियों के लिये हितप्रद है । न पूयणं चेव सिलोयकामी, पियमप्पियं कस्सइ णो करेजा । । सव्वे अणढे परिवजयंते, अणाउले या अकसाइ भिक्खू ॥२२॥ छाया - न पूजनञ्चैव श्लोक कामी, प्रियमप्रियं कस्यापिनोकुर्य्यात् । सर्वान् अनर्थान् परिवर्जयन् अनाकुलश्चाकषायी भिक्षुः ॥ -564)

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