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श्री सूत्रकृताङ्ग सूत्रम्
टीका - किञ्चान्यत् - 'स्वयम्' आत्मनापरोपदेशमन्तरेण 'समेत्य' ज्ञात्वा चतुर्गतिकं संसारं तत्कारणानि चमिथ्यात्वाविरतिप्रमादकषाययोगरूपाणि तथाऽशेषकर्मक्षयलक्षणं मोक्षं तत्कारणानि च सम्यग्दर्शन ज्ञानचारित्राण्येतत्सर्वं स्वत एवावबुध्यान्यस्माद्वाऽऽचार्यांदे, सकाशाच्छ्रुत्वाऽन्यस्मै मुमुक्षवे 'धर्मं ' श्रुतचारित्राख्यं भाषेत, किंभूतं ?प्रजायन्त इति प्रजाः-स्थावरजङ्गमाः जन्तवस्तेभ्यो हितं सदुपदेशदानतः सदोपकारिणं धर्मं ब्रूयादिति । उपादेयं प्रदर्श्य हेयं प्रदर्शयति-ये 'गर्हिता' जुगुप्सिता मिथ्यात्वाविरतिप्रमादकषाययोगाः कर्मबन्ध हेतवः सहनिदानेन वर्तन्त इति सनिदानाः प्रयुज्यन्त इति प्रयोगा-व्यापारा धर्मकथाप्रबन्धा वा ममास्मात्सकाशात्किञ्चित् पूजालाभसत्कारादिकं भविष्यतीत्येवंभूतनिदानाऽऽशंसारूपास्तांश्चारित्रविघ्नभूतान् महर्षयः सुधीरधर्माणो 'न सेवन्ते' नानुतिष्ठन्ति । यदिवा ये गर्हिताः सनिदाना वाक्प्रयोगाः, तद्यथा-कुतीर्थिकाः सावद्यानुष्ठानरता निःशीलानिर्व्रताः कुण्टलवेण्टलकारिण इत्येवंभूतान् परदोषोद्घट्टनया मर्मवेधिनः सुधीर धर्माणो वाक्कण्टकान् 'न सेवन्ते' न ब्रुवत इति ॥१९॥ टीकार्थ संसार चार गतियुक्त है । मिथ्यात्व, अविरति, प्रमाद कषाय, योग संसार के आवागमन के कारण हैं एवं अशेष-समग्र कर्मों के क्षय से मोक्ष प्राप्त होता है । सम्यक्दर्शन, सम्यक्ज्ञान और सम्यक्चारित्र उसके हेतु हैं । साधु इन्हें स्वयं अपने आप जानकर अथवा अन्य से- आचार्यादि से श्रवण कर अन्य मुमुक्षुमोक्षार्थी पुरुष को श्रुत एवं चारित्र मूलक धर्म का उपदेश करे । किस प्रकार के धर्म का उपदेश करे इस संबंध में बतलाते है - जो उत्पन्न होते हैं, उन्हें प्रजा कहा जाता है, स्थावर एवं जंगम प्राणी प्रजा के अन्तर्गत आते है उनको उस धर्म का उपदेश करे जो उनके लिये सदैव हितकर हो । उपादेय को प्रदर्शित कर हेय को प्रकट करते हैं । जो गर्हित- जुगुप्सित या घृणा योग्य है, कर्म बंध के हेतु हैं जैसे मिथ्यात्व, अविरति, प्रमाद, कषाय तथा योग इनको तथा धर्म कथा आदि प्रयोग-कार्य जो निदान - फल की आकांक्षा के साथ किये जाते हैं । जैसे मुझे इनसे पूजा-लाभ सत्कार आदि प्राप्त होते होंगे । इस आशंसा कामना से युक्त होते हुए जो चारित्र में विघ्न भूत-बाधक हैं इनको सुधीर धर्मा-धर्म में अत्यन्त दृढ़, महर्षि - महान संत, सेवन अनुसरण नहीं करते। अथवा जो गर्हित-निन्दित है तथा सनिदान - फलाभिकांक्षा युक्त है जैसे - कुतीर्थिक पापपूर्ण कार्यों में संलग्न रहते हैं, वे नि:शील है, व्रतशून्य है, बेकार है ऐसे अन्यों के दोषों का उद्घाटन करने वाले मर्मवेदी-मर्मस्थान को • पीड़ा देने वाले वचनों का सुधीर धर्मा संत सेवन नहीं करते- वैसे वचन नहीं बोलते ।
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केसिंचि तक्काइ अबुज्झ भावं, खुद्दपि गच्छेज्ज असहाणे । . आउस्स कालाइयारं वघाए, लद्धाणुमाणे य परेसु अट्टे ॥२०॥
छाया
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केषाञ्चित्तर्कया बुद्ध्वा भावं, क्षुद्रत्वमपि गच्छेदश्रद्दधानः । आयुषः कालातिचारं व्याघातं लब्धानुमानः परेष्वर्थान् ॥
अनुवाद - बुद्धि द्वारा अन्य का आशय न जानकर धर्मोपदेश करने से वह अन्य पुरुष अश्रद्धा करता हुआ क्षुद्रत्व- क्रोध आदि ओछेपन को भी अपना सकता है । वह उपदेश देने वाले साधु का हनन भी कर सकता है । इसलिये साधु अनुमान द्वारा अन्य का अभिप्राय समझे तथा फिर उसे धर्म का उपदेश दे ।
टीका' - किञ्चान्यत्- केषाञ्चिन्मिथ्यादृष्टीनां कुतीर्थिक भावितानां स्वदर्शनाऽऽग्रहिणां 'तर्कया' वितर्केण स्वमतिपर्यालोचनेन 'भावम्' अभिप्राय दुष्टान्तः करणवृत्तित्वमबुद्धवा कश्चित्साधुः श्रावको वा स्वधर्मस्थापनेच्छया
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