Book Title: Sutrakritang Sutra
Author(s): Sudarshanlal Acharya, Priyadarshan Muni, Chhaganlal Shastri
Publisher: Shwetambar Sthanakvasi Jain Swadhyayi Sangh

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Page 588
________________ श्री सूत्रकृताङ्ग सूत्रम् (१) संसृष्टि - जिस पदार्थ से हाथ लिप्त हो वही पदार्थ लेना । (२) असंसृष्टि - जिस पदार्थ से हाथ लिप्त न होता हो तो वस्तुएं लेना । (३) उद्धृत - गृहस्थ ने अपने खाने हेतु जो आहार पात्र में रखा हो उसी को लेना । (४) अल्प लेप - जिस आहार में घी या तेल आदि का थोड़ा लेप हो वही लेना । (५) उद्गृहीत - जो आहार परोसने हेतु उद्ग्रहित किया गया हो-निकाला गया हो वही लेना । (६) प्रगृहीत - परोसने से अवशिष्ट-बचा हुआ ही लेना । .. (७) उज्झितधर्म - जो आहार फेंक देने योग्य हो वह लेना । इनमें जिन कल्पी साधु के लिये अन्त के दो ही ग्राह्य है-कल्पनीय है. अथवा जिसका जैसा अभिग्रह हो उसके लिये वही ऐषणा है तथा अन्य अनेषणा है । यों ऐषणा एवं अनेषणा से अभिज्ञ साधु भिक्षा हेतु कहीं गया हो तो वह आहार में अलोलुप रहता हुआ शुद्ध भिक्षा ग्रहण करे । अरतिं रतिं च अभिभूय भिक्खू, बहुजणे वा तह एगचारी । एगंत मोणेण वियागरेजा, एगस्स जंतो गतिरागती य ॥१८॥ छाया - अरतिं रतिञ्चाभिभूय भिक्षु बहुजनो वा तथैकचारी । एकान्तमौनेन व्यागृणीयात्, एकस्य जन्तोर्गतिरागतिश्च ॥ अनुवाद - साधु संयम में अरति-अप्रीति तथा असंयम में रति-प्रीति न रखे, वह संघ में अनेक साधुओं के साथ रहता हो या एकाकी रहता हो. ऐसा वचन न बोले जो संयम में बाधा उपस्थित करे। वह यह ध्यान में रखे कि संसार में जीव एकाकी ही आता है तथा एकाकी ही चला जाता है । टीका - तदेवं भिक्षोरनुकूलविषयोपलब्धिमतोऽप्यरक्तद्विष्टतया तथा दृष्टमप्यदृष्टं श्रुतमप्यश्रुतमित्येवंभावयुक्ततया च मृतकल्पदेहस्य सुदृष्टधर्मण एषणानेषणाभिज्ञस्यान्नपानादावमूर्छितस्य सतः क्वचिद् ग्रामनगरादौ प्रविष्टस्यासंयमे रतिररतिश्च संयमे कदाचित्प्रादुष्प्यात् सा चापने तव्येत्येतदाहमहामुनेरप्यस्नानतया मलाविलस्यान्तप्रान्तवल्लचणकादिभोजिनःकदाचित्कर्मोदयादरति;संयमेसमुत्पद्यते तांचोत्पन्नामसौ भिक्षुःसंसारस्वभावं परिगणय्य तिर्यङ्नारकादिदुःखं चोत्प्रेक्षमाण,स्वल्पंचसंसारिणामायुरित्येवं विचिन्त्याभिभवेद्, अभिभूय चासावेकान्तमौनेन व्यागृणीयादित्युत्तरेण संबन्ध, तथा रतिं च 'असंयमे' सावद्यानुष्ठाने अनादिभवाभ्यासादुत्पन्नामभिभवेदभिभूय च संयमोद्युक्तो भवेदिति । पुनः साधुमेव विशिनष्टि बहवो जनाः-साधवोगच्छवासितया संयमसहाया यस्य स बहुजनः, तथैक एव चरति तच्छीलश्चैकचारी, स च प्रतिभाप्रतिपन्न एकल्लविहारी जिनकल्पादिर्वा स्यात्, स च बहुजन एकाकी वा केन चित्पृष्टोऽपृष्टो वैकान्तमौनेन-संयमेन करणभूतेन व्यागृणीयात् धर्मकथावसरे, अन्यदा संयमबाधया किञ्चिद्धर्मसंबद्धं ब्रूयात्, किं परिगणय्यैतत्कुर्यादित्याह, यदिवा किमसौ ब्रूयादिति दर्शयति'एकस्य' असहायस्य जन्तोःशुभाशुभसहायस्य गतिः'गमनं परलोके भवति, तथा आगति:-आगमनं भवान्तरादुपजायते कर्मसहायस्यैवेति, उक्तं च'एकः प्रकुरुते कर्म, भुनक्त्येकश्चतत्फलम् । जायते म्रियते चैक, एको याति भवान्तरम् ॥१॥" -560)

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