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श्री याताथ्याध्ययनं
इत्यादि । तदेवं संसारे परमार्थतो न कश्चित्सहायो धर्ममेकं विहाय, एतद्विगणय्य मुनीनामयं मौनः - संयमस्तेन तत्प्रधानं वा ब्रूयादिति ॥१८॥
टीकार्थ जो साधु, जिनका पहले वर्णन हुआ है उन अनुकूल प्रिय विषयों की प्राप्ति होने पर न राग करता है न द्वेष करता है । देखे हुए को अनदेखे के समान, तथा सुने हुए को अनसुने के समान समझता है । तथा मृतदेह के समान अपने शरीर का संस्कार-सज्जा नहीं करता । धर्म को भली भांति दृष्टि में रखता है, ऐषणा और अनैषणा से अभिज्ञ तथा आहार पानी आदि में अनासक्त रहता है, किसी गांव या शहर में जाने पर यदि उसकी असंयम में रति तथा संयम में अरति पैदा हो तो वह उसका अपनयन करे, उसे अपने से दूर करे । इस संबंध में सूत्रकार प्रतिपादित करते हैं कि स्नान न करने से जिसका शरीर मैल से युक्त है, जो अन्त प्रान्त - रूखे सूखे चने आदि के आहार से जीवन निर्वाह करता है वैसे महान संत को यदि कर्मों के उदय से संयम में अप्रीति - अरुचि पैदा हो वह मुनि संसार के स्वभाव का परिगणन कर उसे यथावत् जानकर नरक तिर्यक् योनि के दुःखों को उत्प्रेषित कर - देखकर या विचार कर कि संसारी जीवों का आयुष्य स्वल्प होता है-यह सोचकर उसे-संयम में आई हुई अरुचि को त्याग दे । वैसा कर वह एकान्त रूप से संयमानुकूल वाणी बोले । इस प्रसंग का आगे के साथ संबंध है । उस साधु को अनादि काल के अभ्यास के कारण यदि असंयम में - पापयुक्त आचरण में रति रूचि पैदा हो तो वह उसको अभिभूत कर - दबाकर संयम के पालन में उद्यत रहे ।
पुनः सूत्रकार साधु की विशेषता बतलाते हुए कहते हैं । साधु जो गच्छ में संघ में वास करता है तो बहुत से साधु उसके संयम में सहयोगी होते हैं। कोई ऐसा साधु हो अथवा प्रतिमाप्रतिपन्न - प्रतिमाधारी एकाकी विहरणशील हो- अकेला विचरता हो या जिनकल्पी आदि हो, वह बहुत से साधुओं के साथ या अकेला विचरता हो, उससे कोई पूछे या न पूछे तो वह धर्मकथा - प्रवचन के अवसर पर अथवा अन्य समय ऐसा बोले जो संयमानुकूल हो, जिससे संयम में बाधा न हो, जो धर्म से संबद्ध हो । क्या परिगणन कर - चिंतन कर साधु ऐसा करे । अथवा वह क्या बोले ? इस संदर्भ में सूत्रकार कहते हैं- जीव एकाकी ही अपने शुभ अशुभ कर्मों को लेकर परलोक में जाता है। कोई उसका सहायक नहीं होता। वह अपने कर्मों के साथ ही भवान्तर सेअन्य भव से आता है । इसलिये कहा गया है-जीव अकेला ही कर्म करता है, उनका फल भी अकेला ही भोगता है, अकेला ही उत्पन्न होता है और अकेला ही मृत्यु को प्राप्त करता है, तथा अकेला ही अन्य भव में गमन करता है - इत्यादि । इसलिये इस संसार में एकमात्र धर्म के अतिरिक्त अन्य कोई भी वास्तव में सहायक नहीं है । यह विचार कर साधु संयमानुप्राणित वचन बोले ।
ॐ ॐ ॐ
सयं समेच्चा अदुवाऽवि सोच्चा, भासेज्ज धम्मं हिययं पयाणं । जे गरहिया सणियाणप्पओगा, ण ताणि सेवंति सुधीरधम्मा ॥ १९ ॥
छाया स्वयं समेत्याऽथवाऽपि श्रुत्वा भाषेत धर्मं हितकं प्रजानाम् ।
ये गर्हिताः सनिदानप्रयोगाः न तान् सेवन्ते सुधीरधर्माण: ॥
अनुवाद - साधु धर्म को धार्मिक सिद्धान्तों को स्वयं जानकर अथवा अन्य श्रवण कर ऐसा उपदेश करे जो लोगों के लिये हितकर हो । जो कार्यगर्हित-निन्दित या बुरे हैं तथा जो सनिदान फल पाने हेतु किये जाते हैं धीर - मेधावी, आत्मपराक्रमी साधु उन्हें नहीं करते ।
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