Book Title: Sutrakritang Sutra
Author(s): Sudarshanlal Acharya, Priyadarshan Muni, Chhaganlal Shastri
Publisher: Shwetambar Sthanakvasi Jain Swadhyayi Sangh

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Page 587
________________ श्री याताथ्याध्ययनं का परित्याग कर दिया है जिन्होंने विशिष्ट तप द्वारा पापों को शोषित कर दिया है-सुखा दिया है, जला दिया है वे उत्तम गौत्र आदि से-आदि के मद से विवर्जित होकर उच्च-सर्वोत्तम मोक्षगति को उपलब्ध करते हैं । 'च' शब्द से सूचित करते है कि वे पंचमहा विमान या कल्पातीत देवों में उत्पन्न होते हैं । अगौत्र से यह उपलक्षित है कि मोक्ष गति में नाम, कर्म, आयुष्य आदि नहीं होते । यह समझ लेना चाहिये। भिक्खू मुयच्चे तह दिट्ठधम्मे, गामं च णगरं च अणुप्पविस्सा । . से एसणं जाणमणेसणं च, अन्नस्स पाणस्स अणाणुगिद्धे ॥१७॥ छाया - भिक्षुर्मुदर्च स्तथा दृष्टधर्मा, ग्रामञ्च नगरञ्चानुप्रविश्य । . स एषणां जानन्ननेषणाञ्च, अन्नस्य पानस्याननुगृद्धः ॥ अनुवाद - उत्तम लेश्यायुक्त तथा दृष्टधर्मा-धर्मतत्त्व वेत्ता साधु भिक्षा हेतु गांव या शहर में अनुप्रविष्ट होकर ऐषणा एवं अनैषणा का विचार करता हुआ-उस ओर जागरूक रहता हुआ अन्नपान में-आहार, पानी में आसक्त न होकर शुद्ध भिक्षा ग्रहण करे । टीका - स एवं मदस्थान रहितो भिक्षणशीलो भिक्षुः, तं विशिनष्टि-मृतेव स्नानविलेपनादिसंस्काराभावा दर्चातनुः शरीरं यस्य स मृतार्चः यदिवा मोदनं मुत् तद्भूता शोभनाऽर्चा-पद्मादिका लेश्या यस्य स भवति मुदर्चः प्रशस्तलेश्यः, तथा दृष्टः-अवगतो यथावस्थितो धर्मः-श्रुतचारित्राख्यो येन स तथा, स चैवंभूतः चिदवसरे ग्रामनगर मन्यद्वा मडम्बादिकमनुप्रविश्य भिक्षार्थमसावुत्तमतिसंहननोपपन्नःसन्नेषणां-गवेषणग्रहणैषणादिकां जानन्' सम्यगवगच्छन्ननेषणां च-उद्गमदोषादिकां तत्परिहारं विपाकं, च सम्यगवगच्छन् अन्नस्य पानस्य वा 'अननुगृद्धः' अनध्युपपन्नःसम्यग्विहरेत्, तथाहिं-स्थविर कल्पिका द्विचत्वारिंशद्दोषरहितां भिक्षां गृह्णीयुः, जिनकल्पिकानां तु पञ्चस्वभिग्रहो द्वयोर्ग्रहः, ताश्चेमाः "संसद्वमसंसट्ठा उद्धड तइ होति अप्पलेवा य । उग्गहियापग्गहिया उज्झियधम्मा य सत्तमिया ॥१॥" छाया- संसृष्टाऽसंसृष्टा उद्धृत्ता तथा भवत्यल्पलेपाच्च । उद्गृहीता प्रगृहीता उज्झितधर्मा च सप्तमिका॥१॥ अथवा यो यस्याभिग्रहःसा तस्यैषणा अपरा त्वनेषणेत्योचमेषणानिषणाभिज्ञःक्वचित्प्रविष्टःसमाहारादावमूर्छितः सम्यक् शुद्धा भिक्षां गृह्णीयादिति ॥१७॥ टीकार्थ - पहले जैसा वर्णन किया गया है, साधु मद स्थानों से विवर्जित रहता है । भिक्षा द्वारा जीवन निर्वाह करता है । उसकी विशेषता बताते हुए कहते हैं कि वह मृतार्च होता है । स्नान, चन्दन का लेप आदि संस्कार के न होने से जिसकी अर्चा-शरीर मृत जैसा है वह मृतार्च कहलाता है। अथवा जिसके मुत्-शोभनसुंदर अर्चा-पद्म आदि लेश्या है उसे मुदर्च कहा जाता है । अर्थात् वह प्रशस्त लेश्यायुक्त होता है । वह श्रुत चारित्रमूलक धर्म को यथावत् जानता है, ऐसा साधु किसी अवसर पर भिक्षा हेतु ग्राम, नगर तथा मडम्ब-नगर के पास की बस्ती आदि में प्रविष्ट होकर उत्तम धृति-धैर्य तथा संहनन से उत्पन्न-युक्त होता हुआ गवेषणा तथा ग्रहणैषणा आदि को भली भांति अवगत करता हुआ-उनकी ओर ध्यान रखता हुआ उद्गम आदि दोष तथा उनके परिहार एवं ग्रहण का विपाक-फल जानता हुआ आहारपानी में अनासक्त होकर सम्यक विहरणशील रहे । स्थविर कल्पी साधु ४२ दोष वर्जित भिक्षा स्वीकार करे तथा जिन कल्पी साधु पांच अभिग्रह तथा दो ग्रह स्वीकार करे । वे इस प्रकार हैं - 559)

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