Book Title: Sutrakritang Sutra
Author(s): Sudarshanlal Acharya, Priyadarshan Muni, Chhaganlal Shastri
Publisher: Shwetambar Sthanakvasi Jain Swadhyayi Sangh

Previous | Next

Page 585
________________ । श्री याताथ्याध्ययनं टीकार्थ - सूत्रकार पहले कहे गये दोष का फल बताते हुए कहते हैं-जो अनन्तरोक्त-पहले कहे गये प्रकार से परपरिभव-दूसरे का अपमान कर आत्मोत्कर्ष-अपनी उत्कृष्टता दिखाता है-बडप्पन बताता है, वह समग्र शास्त्रों के अर्थ में निष्णात एवं तत्त्वज्ञान में अवगाढप्रज्ञ-गहन प्रज्ञाशील होकर भी ज्ञान दर्शन चारित्र रूप मोक्षमार्ग की अथवा धर्मध्यान की प्राप्ति नहीं करता, वह परमार्थरूपी समुद्र के ऊपर ही प्लवन करता है-तैरता है। ऐसा पुरुष कौन होता है ? सूत्रकार यह दिग्दर्शन कराते हैं-जो पुरुष परमार्थ को-परम सत्य को न जानने के कारण अपने को श्रेष्ठ प्रज्ञाशील मानता हुआ अपनी प्रज्ञा का गर्व करता है, वह समाधि-मोक्ष मार्ग को नहीं पाता । पहले के वर्णन के साथ इसका सम्बन्ध है । सूत्रकार अब दूसरे मद स्थान का उद्घाटन करते हुए कहते हैं-गाथा में प्रयुक्त 'अहवा'-अथवा शब्द पक्षान्तर-दूसरे पक्ष के आशय में है । जो पुरुष अल्पान्तराय है-जिसका लाभान्तराय न्यून है, लब्धिमान-विशिष्ट शक्ति-योगविभूति युक्त है, वह अपने तथा अन्य के लिये उपकरण-जीवनोपयोगी सामग्री उत्पन्न करने में सक्षम होता है किन्तु वह यदि लघु प्रकृति युक्त है-उच्च स्वभाव का नहीं है तो वह अपने लाभ के मद से अवलिप्तगर्वोद्धत होता है । इस तरह का समाधि को प्राप्त नहीं कर पाता । कर्मोदय से जो पुरुष लब्धिरहित है वैसे अन्य पुरुष की निन्दा करता है, तिरस्कार करता है, वह कहता है-सर्व साधारण हेतु शय्या संस्तारक-आस्तरण आदि उपकरण उत्पन्न करने में-उप स्थापित करने में मेरे समान कोई भी नहीं है । दूसरे तो केवल कौओं की ज्यों पेट भरने में ही व्यग्र-व्याकुलतापूर्वक उद्यत रहते हैं । अतः उनका यहां क्या कार्य है । इस प्रकार वह बालप्रज्ञ-मूर्खप्राय अन्य जनों का अपवाद-अपभाषण या निंदा करता है। पन्नामयं चेव तवोमयं च, णिन्नामए गोयमयं च भिक्खू । आजीवगं चेव चउत्थमाहु, से पंडिए उत्तमपोग्गले से ॥१५॥ छाया - प्रज्ञामदञ्चैव तपोमदञ्च, निर्नामयेद् गोत्रमदञ्च भिक्षुः । आजीवगञ्चैव चतुर्थमाहुः स पंडित उत्तम पुद्गलः स ॥ अनुवाद - साधु अपनी प्रज्ञा, तपश्चरण, गौत्र तथा आजीविका का अभिमान न करे । वहीं पंडितविवेकशील है तथा वही उत्तम पुद्गल-पवित्रात्मा है । टीका - तदेवं प्रज्ञामदावलेपादन्यस्मिन् जने निन्द्यमाने बालसद्दशैर्भूयते यतोऽतः प्रज्ञामदो न विधेयो, न केवलमयमेव न विधेयः अन्यदपि मदस्थानं संसारजिहीर्षुणा न विधेयमिति तद्दर्शयितुमाह-प्रज्ञया-तीक्ष्णबुद्धया मदः प्रज्ञामदस्तं च, तपोमदं च निश्चयेन नामयेन्निर्नामयेद्-अपनयेद्, अहमेव यथाविधशास्त्रार्थस्य वेत्ता तथाऽहमेव विकृष्ट तपोविधायी नापि च तपसो ग्लानिमुपगच्छामीत्येवंरूपं मदं न कुर्यात्, तथा उच्चैर्गोत्रे इक्ष्वाकुवंशहरिवंशादिके संभूतोऽहमित्येवमात्मकं गोत्रमदं च नामयेदिति । आ-समन्ताजीवन्त्यनेनेत्याजीवः-अर्थनिचयस्तं गच्छतिआश्रयत्यसावाजीवग:-अर्थमदस्तं च चतुर्थं नामयेत्, च शब्दाच्छेषानपि मदान्नामयेत् तन्नामनाच्चासौ 'पंडितः' तत्त्ववेत्ता भवति, तथाऽसावेव समस्त पदापनोदक उत्तमः पुद्गल-आत्मा भवति, प्रधानवाची वा पुद्गलशब्दः, ततश्चायमर्थः-उत्तमोत्तमोमहतोऽपि महीयान् भवतीत्यर्थः ॥१५॥ ___टीकार्थ - अपनी प्रज्ञा के मद से अवलिप्त होकर जो पुरुष दूसरे की निन्दा करता है वह एक बच्चे के सद्दश अज्ञानी है । अतएव साधु को चाहिये कि वह अपनी प्रज्ञा का अभिमान न करे । केवल प्रज्ञा का 557)

Loading...

Page Navigation
1 ... 583 584 585 586 587 588 589 590 591 592 593 594 595 596 597 598 599 600 601 602 603 604 605 606 607 608 609 610 611 612 613 614 615 616 617 618 619 620 621 622 623 624 625 626 627 628 629 630 631 632 633 634 635 636 637 638 639 640 641 642 643 644 645 646 647 648 649 650 651 652 653 654 655 656 657 658