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श्री याताथ्याध्ययनं कीर्तिकांक्षी तथा आत्मप्रशंसा का अभिलाषी होता है तो वह परमार्थ को नहीं जानता । उसकी अकिंचनतापरिग्रहशून्यता तथा रूखे सूखे भोजन के सहारे जीवन निर्वाह-ये उसकी जीविका-आत्मवर्तन या जीवन चलाने के मात्र साधन हो जाते हैं । अतः वह इस संसार रूपी कान्तार-गहन वन में पुनः पुनः जन्म, वृद्धावस्था, मृत्यु, रुग्णता, शोक आदि उपद्रवों-दुःखों को प्राप्त करता है । संसार के पार जाने-उसे लांघने में अभ्युद्यत-तत्पर होता हुआ भी उसी में निमज्जित हो जाता है-डूब जाता है । यो विपरीत बात बन जाती है।
___आचार्य पदवर्ती किन्तु विशुद्ध समाधि-मोक्ष मार्ग का सेवन नहीं करने वाले जनों के ये दोष जिस प्रकार मिटे, उन्हें वैसा सीखना चाहिये, समझना चाहिये ।
जे भासवं भिक्खु सुसाहुवादी, पडिहाणवं होइ विसरए य । आगाढपण्णे सुविभावियप्पा, अन्नं जणं पन्नया परिहवेजा ॥१३॥ छाया - योभाषावान् भिक्षुः सुसाधुवादी, प्रतिभानवान् भवति विशारदश्च ।
आगाढप्रज्ञः सुविभावितात्माऽन्यंजनं प्रज्ञयाऽभिभवेत् ॥ अनुवाद - जो साधु भाषावान्-भाषा के गुणों का वेत्ता, सुसाधुरूपी-मधुर संभाषणशील, प्रतिभावान्प्रजाशील. विशारद-शास्त्र के अर्थ में प्रवीण, आगाढप्रज्ञ-तत्वग्रहण में प्रगाढ़ प्रतिभाशील तथा सुभाक्तिात्मा-जिसका हृदय धर्म भावना से अनुभावित है, वही वास्तव में साधु है । जो अपनी प्रज्ञा-बुद्धि तथा गुणों का गर्व करता है अन्य की अवहेलना करता है, वह साधु नहीं है ।
टीका - भाषागुणदोषज्ञतया शोभनभाषायुक्तो भाषावान् ‘भिक्षुः' साधुः, तथा सुष्ठु साधु-शोभनं हितं मितं प्रियं वदितुं शीलमस्येत्यसौ सुसाधुवादी, क्षीरमध्वाश्रववादीत्यर्थः तथा प्रतिभा प्रतिभानम् - औत्पत्तिक्यादिबुद्धिगुणसमन्वितत्वे नोत्पन्न प्रतिभत्वं तत्प्रति भानं विद्यते यस्यासौ प्रतिभानवान् - अपरेणाक्षिप्तस्तदनन्तरमेवोत्तरदान समर्थः यदिवा धर्मकथावसरे कोऽयं पुरुषाः कं च देवताविशेष प्रणत: कतरद्वा दर्शनमाश्रित इत्येवमासन्नप्रतिभतया (ऽवेत्य) यथायोगमाचष्टचे, तथा विशारदः' अर्थग्रहणसमर्थो बहु प्रकारार्थकथनसमर्थो वा, च शब्दाच्च श्रोत्रभिप्रायज्ञः, तथा आगाढ़ा-अवगाढ़ा. परमार्थपर्य व सिता तत्त्वनिष्टा प्रज्ञाबुद्धिर्यस्यासावागाढप्रज्ञः तथा सष्ठविविधंभावितो-धर्मवासनया वासित आत्मा यस्यासौसविभावितात्मा. तदेवमेभिःसत्यभाषादिभिर्गणैः शोभन: साधुर्भवति, यश्चेभिरेव निर्जरा हेतुभूतैरपि मदं कुर्यात्, तद्यथा-अहमेव भाषाविधिज्ञस्तथा साधुवाद्यहमेव च न मत्तुल्यः प्रतिभानवानस्ति नापि च मत्समानोऽलौकिक: लोकोत्तरशास्त्रार्थविशारदोऽवगाढप्रज्ञः सुभावितात्मेतिच, एवमात्मोत्कर्षवानन्यं जनं स्वकीययां प्रज्ञया 'परिभवेत्' अवमन्येत, तथाहि-किमनेन वाक् कुण्ठेन दुर्दुरूढेन कुण्डिताकापसिकल्पेन खसूचिना कार्यमस्ति ? क्वचित्सभायां धर्म कथावसरे वेति, एवमात्मोत्कर्षवान् भवति, तथा चोक्तम् -
अन्यैः स्वेच्छारचितानर्थ विशेषान श्रमेण विजाय ।
कृत्स्नं वाङ्मयमित इति खादत्यङ्गानि दर्पण ॥१॥ इत्यादि ॥१३॥ ___टीकार्थ - भाषा के गुणों और दोषों को जानने के कारण जो साधु शोभन भाषायुक्त है-जो सुष्ठुसुन्दर-प्रीतिकर, हितकर, परिमित और मधुर भाषण करता है । दूध तथा मधु की ज्यों मीठा बोलता है, औत्पातिकी आदि बुद्धि के गुणों से समन्वित है, दूसरे द्वारा किये गये आक्षेप-आरोप का तदनन्तर-तत्क्षण ही जो उत्तर दे
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