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श्री सूत्रकृताङ्ग सूत्रम् देता है, जो धर्म कथा प्रसंग में यह पुरुष कौन है ? कैसा है ? किस देवता विशेष में श्रद्धा रखता है ? किस दर्शन में इसका विश्वास है ? अपनी आसन्न प्रतिभा-प्रत्युत्पन्नमति के कारण जानकर जैसा समुचित होता है, बोलता है, उपदेश देता है तथा जो पदार्थों को ग्रहण करने में-आत्मसात करने में-समझने में समर्थ होता है अथवा जो सिद्धान्तों की अनेक प्रकार की व्याख्या करने में निपुण होता है तथा 'च' शब्द से सूचित जो श्रवणकर्ता के आशय को जान लेता है, जिसकी बुद्धि परमार्थ में-सत्य तत्त्व में सन्निविष्ट होती है, धर्म की भावना से जिसका हृदय अनुभावित होता है, वह साधु इन सत्य भाषादि गुणों से युक्त होने के कारण शोभन-श्रेष्ठ साधु हैं । किन्तु जो साधु निर्जरा के कारणभूत इन गुणों के कारण गर्व करता है जैसे "मैं ही भाषाविधि का वेत्ता हूं" साधुवादी-उत्तम वक्ता हूं । मेरे सदृश दूसरा प्रतिभा सम्पन्न नहीं है । मेरे समान अन्य अलौकिक-शास्त्रों के विशिष्ट-विशद ज्ञान में विशारद निपुण नहीं है तथा मैं ही ऐसा हूं जिसकी बुद्धि अवगाढ़-तत्त्वान्वेषण में गहरी पैठी हुई है । मेरे समकक्ष कोई संभावितात्मा-धर्म की भावना से भावित उत्तम पुरुष नहीं है । यों आत्मोत्कर्षअभिमान या गर्व करता हुआ अपनी प्रज्ञा द्वारा दूसरे का परिभव या अवमानना करे । जैसे कहीं सभा में धर्मकथाधर्म चर्चा के प्रसंग में इस वाक्कुण्ठ-कुण्ठित वाणी युक्त, दुर्दुरूढ़-जड़, कुण्डिका-कुण्डी में रखी हुए कपास के समान इस निस्सार तथा आकांश के समान शून्य पुरुष का यहां क्या काम है, ऐसा बोले । इस प्रकार वह अपने को गर्वोन्मत्त मानता है इसलिये कहा गया है-अन्यों द्वारा स्वेच्छा से प्रणीत कतिपय शास्त्रों को-विषयों को परिश्रमपूर्वक जानकर अभिमानी पुरुष दर्पपूर्वक यह समझता है कि समस्त वाङ्मय-सारे शास्त्र इतने ही
एवं ण से होइ समाहिपत्ते, जे पन्नवं भिक्खु विउक्कसेजा। अहवाऽवि जे लाभमयावलित्ते, अन्नं जणं खिंसति बालपन्ने ॥१४॥ छाया - एवं न स भवति समाधिप्राप्तः, यः प्रज्ञावान् भिक्षुर्युकरेत् ।
अथवाऽपि यो लाभमदावलिप्तः अन्यं जनं निन्दति बालप्रज्ञः ॥ अनुवाद - जो साधु प्रज्ञावान-मेधाशील होकर गर्व करता है, अथवा जो लाभ के मद से अवलिप्त होकर-अपनी उपलब्धियों से गर्वान्वित होकर अन्य की निन्दा करता है, वह बालप्रज्ञ है-बच्चे की सी बुद्धि बाला या अज्ञानी है । वह समाधि को प्राप्त नहीं करता है।
टीका - साम्प्रतमेतद्दोषाभिधित्सयाऽऽह-'एवम्' अनन्तरोक्तया प्रक्रियया परपरिभवपुर:सरमात्मोत्कर्ष कुर्वन्नशेषशास्त्रार्थविशारदोऽपि तत्त्वार्थावगाढप्रज्ञोऽप्यसौ 'समाधिं' मोक्षमार्ग ज्ञानदर्शनचारित्र रूपं धर्मध्यानाख्यं वा न प्राप्तो भवति, उपर्येवासौ परमार्थोदन्वत: प्लवते, क एवंभूतो भवतीति दर्शयति-यो ह्यविदितपरमार्थतयाऽऽत्मानं सच्छेमुषीकं मन्यमानः स्वप्रज्ञया भिक्षुः 'उत्कर्षेद' गर्व कुर्यात, नासौ समाधि प्राप्तो भवतीति प्राक्तनेन संबंध, अन्यदपि मदस्थानमुद्घट्टयति-'अथवे' त्ति पक्षान्तरे, यो ह्यल्पान्तरायो लब्धिमानात्मकृत परस्मै चोपकरणादिकमुत्पादयितुमलं स लघुप्रकृतितया लाभमदावलिप्तो भवति, तदवलिप्तश्च समाधिमप्राप्तो भवति, स चैवंभूतोऽन्यं जनं कर्मोदयादलब्धिमन्तं 'खिंसइ' त्ति निन्दति परिभवति, वक्ति च-न मत्तुल्यः सर्व साधारणशय्यासंस्तारकाद्युपकरणोत्पादको विद्यते, किमन्यैः स्वोदरभरणव्यग्रतया काकप्रायैः कृत्यमस्तीत्येवं 'बालप्रज्ञो' मूर्खप्रायोऽपरजनापवादं विदध्यादिति ॥१४॥
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