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श्री सूत्रकृताङ्ग सूत्रम्
टीकार्थ
मान - गर्व करना, गुण के लिये नहीं होता उससे कोई लाभ नहीं होता, सूत्रकार इसका दिग्दर्शन कराते हुए कहते हैं - जो लघु प्रकृति-ओछी वृत्ति से युक्त पुरुष गर्व से उद्धत या निरंकुश बन जाता है उसका जाति या कुल जुड़ा हुआ अभिमान संसार में पर्यटन करने से उसे त्राण नहीं दे सकता उससे उसकी रक्षा नहीं कर सकता । वह न इस लोक में और न परलोक में ही उसका कोई उपकार करता है 1 जाति ‘मातृसमुत्था' माता से उत्पन्न होती है तथा कुल 'पितृसमुत्थ' पिता से उत्पन्न होता है । यहां जाति तथा कुल उपलक्षण है । इनसे यह सूचित है कि मद के अन्य स्थान भी संसार से त्राण देने में सक्षम नहीं है । संसार से पार लगाने में जो समर्थ है, सूत्रकार उसका दिग्दर्शन कराते हुए कहते हैं - ज्ञान एवं चारित्र संसार से त्राण- रक्षण करते हैं । इनके अतिरिक्त और किसी से संसार से पार कराने की, त्राण देने की आशा नहीं है । ज्ञान तथा चारित्र सम्यक्त्व से उपबृंहित- समाश्रित, संवर्धित होकर जब भली भांति आचरित किये जाते हैं, वे संसार से पार लगा देते हैं । कहा गया है ज्ञान तथा क्रिया से मोक्ष प्राप्त होता है । ऐसा होते हुए भी कोई अपुष्टधर्मा -धार्मिक दृढ़ता से रहित संसारोन्मुख - संसार में रचा पचा पुरुष प्रवर्जित होकर भी गृहस्थों से जुड़े जाति आदि से संबद्ध मद स्थान का पुनः पुनः सेवन करता है- अभिमान करता है अथवा ‘अगारिकम्म’ इस पाठान्तर के अनुसार सावद्य - पापमय कर्म का आचरण करता है अथवा जाति मद का सेवन करता है, वह अपने समस्त कर्मों मोचन - उनका क्षय करने में पारगामी समर्थ नहीं होता । देशमोचन - आंशिक रूप से कर्मों का क्षय तो प्राय समस्त प्राणियों के प्रतिक्षण होता रहता है ।
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णिक्किंचणे भिक्खू सुलूहजीवी, जे गारवं होइ सलोगगामी । आजीवमेयं तु अबुज्झमाणो, पुणो पुणो विप्परियासुवेंति ॥११॥
छाया निष्किञ्चनो भिक्षुः सुरुक्षजीवी यो गौरवो भवति श्लोककामी । आजीवमेतत्त्वबुध्यमानः पुनः नो विपर्य्यासमुपैति ॥
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अनुवाद - निष्किंचन - द्रव्यादि परिग्रह रहित, सुरुक्षजीवी - रूखे सूखे भिक्षान्न से जीवन निर्वाहक भिक्षु यश की आकांक्षा करता हुआ यदि अभिमान करता है तो ये गुण मात्र उसकी आजीविका के साधन है । वह विवेक शून्य साधु पुनः पुनः विपर्यास-संसार के जन्म मरण के चक्र में भटकता है-क्लेश भोगता है । टीका पुनरप्यभिमानदोषाविर्भावनायाह-बाह्येनार्थेन निष्किञ्चनोऽपि भिक्षणशीलो भिक्षुः- परदत्त भोजी तथा सुष्ठु रूक्षम्-अन्त प्रान्तं वल्लचणकादि तेन जीवितुंप्राणधारणं कर्तुं शीलमस्य स सुरुक्षजीवीएवं भूतोऽपि यः कश्चिद्गौरवप्रियोभवति तथा " श्लोक कामी" आत्मश्लाघोभिलाषी भवति, सचैवंभूतः परमार्थमबुध्यमानः एतदेवा किञ्चनत्वं सुरुक्ष जीवित्वं वाऽऽत्मश्लाघातत्परतया आजीवम्-आजीविकामात्मवर्तनोपायं कुर्वाणः पुनः पुनः संसारकान्तारे विपर्यासं-जातिजरामरणरोगशोकोपद्रवमुपैति - गच्छति, तदुत्तरणायाभ्युद्यतो वा तत्रैव निमज्जतीत्ययं विपर्यास इति ॥१२॥ यस्मादमी दोषाः समाधिमाख्यातमसेवमानानामाचार्यपरिभाषिणां वा तस्मादमीभिः
शिष्यगुणैर्भाव्यमित्याह
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टीकार्थ सूत्रकार अभिमान के दोषों को अभिव्यक्ति करने हेतु कहते हैं जो पुरुष किसी भी प्रकार के बाह्य पदार्थ नहीं रखता - अकिंचन है, दूसरे द्वारा प्रदत्त भिक्षा के सहारे आजीविका चलाता है- रूखे सूखे अन्तप्रान्त-बचे खुचे आहार द्वारा जीवन निर्वाह करता है, ऐसा होते हुए भी वह यदि गौरवप्रिय, श्लोक कामी
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