Book Title: Sutrakritang Sutra
Author(s): Sudarshanlal Acharya, Priyadarshan Muni, Chhaganlal Shastri
Publisher: Shwetambar Sthanakvasi Jain Swadhyayi Sangh

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Page 580
________________ श्री सूत्रकृताङ्ग सूत्रम् निश्चय किया जाता है, वह ज्ञान संख्या कहलाता है । वह तपस्वी अपने आपको वैसा ज्ञानी मानकर परमार्थ का सम्यक् परीक्षण न कर आत्माभिमानी-गर्वान्वित होता हुआ, अन्य साधु जनों को सद्धर्मशील गृहस्थवृन्द को पानी में जल के प्रतिबिम्ब की ज्यों या खोटे सिक्के की ज्यों निरर्थक केवल वेशधारी या पुरुषाकृति मात्र देखता है, अवमानना करता है, तथा जाति आदि मदस्थानों का अपने आपमें आरोपकर-अपने को उच्च या उत्कृष्ट जाति आदि विशेषताओं से युक्तमानकर दूसरे को तिरस्कार या अवहेलना की दृष्टि से देखता है, वह विवेकशून्य है। जो कूट या पाश-फंदे के सदृश होता है उसे कूट कहा जाता है जैसे हिरण आदि पशु पाशबद्ध होकर परवश-पराधीन हो जाते हैं तथा एकान्त रूप में दुःखभागी होते हैं । उसी प्रकार वह साधु स्नेहमय भावात्मक पाश में बद्ध होकर संसार चक्र में भटकता है अथवा वह संसार में प्रलीन-अत्यन्त आसक्त होता हुआ बहुत तरह-पुनः पुनः संसार में जन्म मरण रूप आवागमन में चक्कर लगाता है । यहां आये हुए 'तु' शब्द से यह प्रकट किया गया है कि वह काम आदि द्वारा या मोह द्वारा विमूढ़ होकर अत्यन्त यातनामय संसार में प्रलीन होता हैं-निमग्न रहता है । जो पुरुष जैसा पहले कहा गया अभिमानी होता है वह मौन पद में-साधु जीवन में वर्तनशील नहीं होता । मुनियों से संबद्ध आचार या धर्म मौन कहलाता है । उसका पद या स्थान संयम है । अथवा मौनिन्द्र-सर्वज्ञ द्वारा प्ररूपित पद-मार्ग मौनिन्द्र पद है । वह उसका अनुसरण नहीं करता । सर्वज्ञ मत की विशेषता बतलाते हुए कहते हैं-जो गो-वाणी का त्राण करता है-अविसंवादि-अविरुद्ध या सत्य अर्थ का निरूपण कर वाणी का रक्षण करता है, उसे गोत्र कहा जाता है । सर्वज्ञ मत गोत्र है, वह समग्र आगमों का आधार है । अथवा जो उच्च गोत्र में-उत्तम कुल में जन्म लेकर उसका गर्व करता है, वह सर्वज्ञ के मार्ग में वर्तनशील नहीं है । जो मानन-पूजन, सत्कार का अर्थी-इच्छुक बना रहता है, उसे पाकर तरह-तरह से गर्व करता है, गर्व का प्रदर्शन करता है वह भी सर्वज्ञ के मार्ग में विद्यमान नहीं है । वसु का अर्थ द्रव्य है । वह यहां संयम के रूप में गृहीत है । उसे-संयम को ग्रहण कर जो व्यक्ति ज्ञान आदि मद स्थानों में ग्रस्त होकर परमार्थ को नहीं जानता हुआ मदोन्मत होता है, समस्त शास्त्रों को पढ़ता हुआ, उनका अर्थ जानता हुआ भी वास्तव में सर्वज्ञ का मत-सिद्धान्तं नहीं जानता। जे माहणो खत्तियजायए वा, तहुग्गपुत्ते तह लेच्छई वा । जे पव्वईए परदत्तभोई, गोत्ते ण जे थब्भति (थंभि) माणबद्धे ॥१०॥ छाया - यो ब्राह्मणः क्षत्रियजातको वा तथोग्रपुत्रस्तथा लेच्छको वा ।। यः प्रवजितः परदत्तभोजी गोत्रे न यः स्तभ्नात्यभिमानबद्धे ॥ अनुवाद - ब्राह्मण, क्षत्रिय, उग्रपुत्र तथा लिच्छिवि वंशीय जो प्रवर्जित है अन्य द्वारा दिये हुए आहार का सेवन करता है । अपने उच्च कुल से स्तब्ध नहीं है-गर्वोद्धत नहीं है, वह सर्वज्ञ के मार्ग का अनुसरण करता है। टीका - सर्वेषां मदस्थानानामुत्पत्तेरारभ्य जातिमदो बाह्यनिमित्त-निरपेक्षो यतो भवत्यस्तमधिकृत्याहयो हि जात्या ब्राह्मणो भवति क्षत्रियो वा-इक्ष्वाकुवंशादिकः, तद्भेदमेव दर्शयति-'उग्रपुत्रः' क्षत्रियविशेषजातीयः तथा 'लेच्छइ' त्ति क्षत्रिय विशेष एव, तदेवमादिविशिष्टकुलोद्भूतो यथावस्थितसंसारस्वभाववेदितया यः 552

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