Book Title: Sutrakritang Sutra
Author(s): Sudarshanlal Acharya, Priyadarshan Muni, Chhaganlal Shastri
Publisher: Shwetambar Sthanakvasi Jain Swadhyayi Sangh

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Page 581
________________ श्री याताथ्याध्ययनं ‘प्रव्रजितः’ त्यक्तराज्यादिगृहपाशबन्धनः परैर्दत्तं भोक्तुं शीलमस्य परदत्तभोजी - सम्यक्संयमानुष्ठायी 'गोत्रे' उच्चैर्गोत्रे हरिवंशस्थानीये समुत्पन्नोऽपि नैव 'स्तम्भं' गर्वमुपेयादिति, किंभूते गोत्रे ? - " अभिमान बद्धे" अभिमानास्पदे इति, एतदुक्तं भवति-विशिष्टजातीयतया सर्वलोकाभिमान्योऽपि प्रव्रजितः सन् कृतशिरस्तुण्डमुण्डनो भिक्षार्थं परगृहाण्यटन् कथं हास्यास्पदं गर्वं कुर्यात् ? नैवासौ मानं कुर्यादिति तात्पर्यार्थः ॥१०॥ टीकार्थ - जितने मद के अभिमान के स्थान - आधार हैं उन सभी में जाति का मद मुख्य है। क्योंकि वह बाह्य कारण पर टिका हुआ नहीं है, जन्म लेने मात्र से होता है । अतएव सूत्रकार उसे अधिकृत कर कहते हैं- जो पुरुष ब्राह्मण जाति में, ईक्ष्वाकु वंश उग्र कुल - लिच्छिवि आदि क्षत्रिय जाति में उत्पन्न हुआ है । इस प्रकार विशिष्ट कुल में उत्पन्न होकर जो संसार के वास्तविक स्वरूप को समझकर राज्यादि को बंधन का हेतु जानकर उनका परित्याग कर प्रब्रजित हो गया है । अन्य द्वारा दत्त - दिये गये आहार आदि का सेवन करता है । शुद्ध संयम का परिपालन करता है । हरिवंश के तुल्य उच्च गोत्र में समुत्पन्न होता हुआ भी वह स्तम्भगर्व न करे। किस प्रकार के गोत्र में ? इसका स्पष्टीकरण करते हुए कहते हैं कि वैसे गोत्र में जो अनभिमान से बद्ध है अथवा अभिमानास्पद है- गर्व उत्पन्न करने का हेतु है । इसका अभिप्राय यह है कि विशिष्ट जाति में जन्म होने के कारण जो सब लोगों के लिये सम्माननीय रहा, प्रव्रजित होकर मस्तक और मुँह के बाल मुंडाकर साधुत्व स्वीकार कर जब भिक्षा के लिये औरों के घर जाता है तब वह क्यों गर्व करे ? वैसा करना उसके लिये हास्यास्पद है । तात्पर्य यह है कि वह कभी भी अभिमान न करे । ॐ ॐ ॐ न तस्स जाई व कुलं व ताणं, णण्णत्थ विज्जाचरणं सुचिणं । णिक्खम्म से सेवइऽगारि कम्मं, ण से पारए होइ विमोयणा ॥ ११ ॥ छाया न तस्य जातिश्च कुलं न त्राणं, नाऽन्यत्र विद्याचरणं सुचीर्णम् । निष्क्रम्य स सेवतेऽगारिकर्म, न स पारगो भवति विमोचनाय ॥ अनुवाद - जाति तथा कुल मानव को दुर्गति से त्राण नहीं दे सकते । वे उसे उससे नहीं बचा सकते। भलीभांति साधित विद्या-ज्ञान तथा चरण चारित्र के अतिरिक्त और कोई भी मनुष्य को दुर्गति से दुःख से नहीं बचा सकता । जो पुरुष घर से निष्क्रमण कर-दीक्षित होकर भी गृहस्थ के कर्मों का सेवन करता है - अनुसरण करता है वह अपने कर्मों के विमोचन में उन्हें क्षीण करने में सक्षम नहीं होता । टीका – न चासौ मान: क्रियमाणो गुणायेतिदर्शयितुमाह-न हि 'तस्य' लघुप्रकृतेरभिमानोद्धुरस्य जातिमदः कुलमदो वा क्रियमाणः संसारे पर्यटतस्त्राणं भवति, न ह्यभिमानो जात्यादिक ऐहिकामुष्मिकगुणयोरूपकारीति, इह च मातृसमुत्था जाति: पितृसमुत्थं कुलम्, एतच्चोपलक्षणम्, अन्यदपि मदस्थानं न संसारत्राणायेति, यत्पुनः संसारोत्तारकत्वेन त्राणसमर्थं तद्दर्शयति-ज्ञानं च चरणं च ज्ञानचरणं तस्मादन्यत्र संसारोत्तारणत्राणाशा न विद्यते, एतच्च सम्यक्त्वोपवृंहितं सत् सुष्ठु चीर्णं संसारादुत्तारयति, 'ज्ञानक्रियाभ्यां मोक्ष' इति वचनात् एवंभूते सत्यपि मोक्षमार्गे 'निष्क्रम्यापि' प्रव्रज्यां गृहीत्वापि कश्चिदपुष्टधर्मा संसारोन्मुखः 'सेवते' अनुतिष्ठत्यभ्यस्यति पौनःपुन्येन विधत्ते अगारिणां-गृहस्थानामङ्गंकारणं जात्यादिक मदस्थानं, पाठान्तरं वा 'अगारिकम्मं' त्ति अंगारिणां कर्म अनुष्ठानं सावद्यमारम्भं जातिमदादिकं वा सेवते, न चासावगारिकर्मणां सेवकोऽशेषाकर्ममोचनाय पारगो भवति, निःशेषकर्मक्षयकारी न भवतीति भावः । देश मोचना तु प्रायशः सर्वेषामेवासुमतां प्रतिक्षणमुपजायत इति ॥११॥ 553

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