Book Title: Sutrakritang Sutra
Author(s): Sudarshanlal Acharya, Priyadarshan Muni, Chhaganlal Shastri
Publisher: Shwetambar Sthanakvasi Jain Swadhyayi Sangh

Previous | Next

Page 579
________________ __श्री याताथ्याध्ययनं. एगंतकूडेण उ से पलेइ, ण विजतीमोणपयंसिगोत्ते । .. जे माणणटेण विउक्कसेजा, वसुमन्नतरेण अबुज्झमाणे ॥१॥ छाया - यश्चाऽप्यात्मानं वसुमन्तं मत्त्वा, संख्यावन्तं वाद्मपरीक्ष्यकुर्यात् । तपसावाहं सहित इति मत्त्वाऽन्यं जनं पश्यति बिम्बभूतम् ॥८॥ एकान्तकूटेन तु स पर्येति, न विद्यते मौनपदे गोत्रे । यो मननार्थेन व्युत्कर्षयेत् वसुमदन्यतरेणाबुध्यमानः ॥९॥ अनुवाद - जो अपने आप को संयमी और ज्ञानी मान कर बिना परीक्षा किये-अपने वास्तविक स्वरूप को बिना समझे अपनी प्रशंसा करता है-मैं तपःश्चरणशील हूं, यह सोचकर अन्य पुरुष को जल में दिखाई देते चन्द्रमा के प्रतिबिम्ब के समान तुच्छ या निरर्थक देखता है । वह अभिमानी पुरुष एकान्ततः मोह में ग्रस्त होकर संसार में पर्यटन करता है । वह सर्वज्ञ द्वारा प्ररूपित पथ का अनुगामी नहीं है । जो सम्मान तथा प्रशस्ति पाकर मदोन्मत्त हो जाता है, संयमी होता हुआ भी ज्ञानादि का गर्व करता है, वह परमार्थ को नहीं जानता ॥८॥९॥ टीका- प्रायस्तपस्विनां ज्ञानतपोऽवलेपो भवतीत्यतस्तमधिकृत्याह-यश्चापिकश्चिल्लघुप्रकृतिरल्पतयाऽऽत्मानं वसु-द्रव्यं तच्च परमार्थचिन्तायां संयमस्तद्वन्तमात्मानं मत्वाऽहमेवात्र संयमवान् मूलोत्तरगुणानां सम्यग्विधायी नापरः कश्चिन्मत्तुल्योऽस्तीति, तथा संख्यायन्तेपरिच्छिद्यन्ते जीवादयः पदार्था येन तज्ज्ञानं संख्येत्युच्यते तद्वन्तमात्मानं मत्वा तथा सम्यक्-परमार्थमपरीक्ष्यात्मोत्कर्षाभिमानीति ‘अन्यं जनं' साधुलोकं गृहस्थलोकं वा 'बिम्बभूतं' जलचन्द्रवत्तदर्थशून्यं कूटकार्षापणवद्वा लिंगमात्रधारिणं पुरुषाकृतिमात्रं वा 'पश्यति' अवमन्यते । तदेवं यद्यन्मदस्थानंजात्यादिकं तत्तदात्मन्येवारोप्यापरमवधूतं पश्यतीति ॥८॥ किञ्चान्यत् - ___ कूटवत्कूटं यथा कूटेन मृगादिर्बद्धः परवशः सन्नेकान्तदुःखभाग्भति एवं भावकूटेन स्नेहमयेनैकान्तताऽसौ संसार चक्रवालं पर्येति तत्र वा प्रकर्षेण लीयते प्रलीयते-अनेक प्रकारं संसार बंभ्रमीति, तुशब्दात्कामादिना वा मोहेन मोहितो बहुवेदने संसारे प्रलीयते, यश्चैवंभूतोऽसौ 'न विद्यते' न कदाचन संभवति मुनीनामिदं मौनं तच्च तत्पदं च मौनपदं-संयमस्तत्र मौनीन्द्रे वा पदे-सर्वज्ञप्रणीतमार्गे नासौ विद्यते, सर्वज्ञमतमेव विशिनष्टिगां-वाचं त्रायते-अर्थाविसंवादनतःपालयतीति गोत्रं तस्मिन् समस्तागमाधारभूत इत्यर्थः, उच्चैर्गोत्रे वा वर्तमानस्तदभिमानग्रहग्रस्तो मौनीन्द्र पदे न वर्तते, यश्च माननं-पूजनं सत्कारस्तेनार्थः-प्रयोजनं तेन माननार्थेन विविधमुत्कर्षयेदात्मानं, यो हि माननार्थेन-लाभपूजासत्कारादिना मदं कुर्यान्नासौ सर्वज्ञ पदे विद्यतः इति पूर्वेण संबन्धः, तथा वसु-द्रव्यं तच्चेह संयमस्तमादाय तथाऽन्यतरेण ज्ञानादिना मदस्थानेन परमार्थमबुध्यमानो माद्यति पठन्नपि सर्वशास्त्राणि तदर्थं वावगच्छन्नपि नासौ सर्वज्ञमतं परमार्थतो जानातीति ॥९॥ टीकार्थ - तपस्वी जनों को अपने ज्ञान तथा तपश्चरण का प्रायः अवलेप-अभिमान होता है, अतः शास्त्रकार इस विषय को अधिकृत कर प्रतिपादन करते हैं-जो कोई लघुप्रकृति-ओछे स्वभाव से युक्त पुरुष अपने को वसुमान-द्रव्य या सम्पन्नता युक्त मानता है, तात्पर्यतः संयम ही पारमार्थिक वैभव है, अपने आपको उत्तम संयम तपश्चरणशील मानकर ऐसा सोचता हैं कि मैं ही मूल गुणों एवं उत्तरगुणों का भली भाँति परिपालन करने वाला संयमी हूँ, कोई और मेरे तुल्य नहीं है । जिसके द्वारा जीव आदि तत्वों का संख्यान-परिच्छेद 551)

Loading...

Page Navigation
1 ... 577 578 579 580 581 582 583 584 585 586 587 588 589 590 591 592 593 594 595 596 597 598 599 600 601 602 603 604 605 606 607 608 609 610 611 612 613 614 615 616 617 618 619 620 621 622 623 624 625 626 627 628 629 630 631 632 633 634 635 636 637 638 639 640 641 642 643 644 645 646 647 648 649 650 651 652 653 654 655 656 657 658