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श्री याताथ्याध्ययनं जे विग्गहीए अन्नायभासी, न से समे होइ अझंझपत्ते । उ (ओ) वायकारी य हरीमणे, य एगंतदिट्ठी य अमाइरूवे ॥६॥ छाया - यो विग्रहिकोऽन्यायभाषी न सः समी भवत्यझंझाप्राप्तः ।
उपपातकारी च हीमनाच, एकान्तदृष्टिश्चामायिरूपः ॥ अनुवाद - जो विग्रह-झगड़ा करता है तथा अन्यायपूर्ण भाषण करता है, वह समत्त्व को प्राप्त नहीं होता-उसमें समताभाव नहीं पनपता । वह क्लेश रहित नहीं होता । जो गुरु की आज्ञा का पालन करता है, पाप करने में लज्जित होता है तथा तत्त्वों में निष्ठा रखता है वही अमायी-माया रहित है।
टीका - किञ्चान्यत्-यः कश्चिदविदितपरमार्थो विग्रहो-युद्धं स विद्यते यस्यासौ विग्रहिको यद्यपि प्रत्युपेक्षणादिकाः क्रिया विधत्ते तथापि युद्धप्रियः कश्चिद्भवति तथाऽन्याय्यं भाषितुं शीलमस्य सोऽन यत्किञ्चनभाष्यस्थानभाषी गुर्वाद्यधिक्षेपकरो वा यश्चैवंभूतो नासौ 'समो' रक्तद्विष्टतया मध्यस्थो भवति, तथा नाप्यझञ्झां प्राप्तः-अकलहप्राप्तो वा न भवत्यमायाप्राप्तो वा, यदिवा अझञ्झाप्राप्तैः-अकलहप्राप्तैः सम्यग्दृष्टिभिरसौ समो न भवति यतः अतो नैवंविधेन भाव्यम्, अपि त्वक्रोधनेनाकर्कशभाषिणा चोपशान्तयुद्धानुदीरकेण न्याय्यभाषिणाऽझञ्झाप्राप्तेन मध्यस्थेन च भाव्यमिति । एवमनन्तरोद्दिष्टदोषवर्जी सन्नुपपातकारीआचार्यनिर्देशकारीयथोपदेशं क्रियासु प्रवृत्तः यदिवा 'उपायकारि'त्ति सूत्रोपदेशंप्रवर्तकः, तथाही: लज्जा संयमो मूलोत्तरगुणभेदभिन्नस्तत्र मनो यस्यासौ-ह्रीमनाः, यदिवा-अनाचारं कुर्वन्नाचार्यादिभ्यो लज्जते स एवमुच्यते तथैकान्तेन तत्त्वेषुजीवादिषु पदार्थेषुदृष्टिर्यस्यासावेकान्तदृष्टिः, पाठान्तरं वा 'एगंतसड्ढि' त्ति एकान्तेन श्रद्धावान मौनीन्द्रोक्तमार्गे एकान्तेन श्रद्धालुरित्यर्थः चकारः पूर्वोक्तदोषविपर्यस्तगुणसमुच्चयार्थः, तद्यथा-ज्ञानापलिकुञ्चकोऽक्रोधीत्यादि तावदझञ्झाप्राप्त इति, स्वत एवाह-'अमाइरूवे'त्ति अमायिनो रूपं यस्यासावमायिरूपोऽशेषच्छद्यरहित इत्यर्थः,न गुर्वादीन् छद्मनोपचरति नाप्यन्येन केन चित्सार्धं छद्मव्यवहारं विधत्त इति ॥६॥
___टीकार्थ – जो परमार्थ को नहीं जानता, विग्रह-झगड़ा करता है, यद्यपि प्रतिक्रमण आदि क्रियाएं सम्पादित करता है, किन्तु युद्धप्रिय-झगडालू होता है, अन्याय पूर्ण भाषण करता है, चाहे जो बोल उठता है, अस्थानभाषी होता है-प्रसंग के बिना ही बोलता है, गुरु आदि पर अधिक्षेप करता है, वह रक्तता-राग द्विष्टता-द्वेष से युक्त होने के कारण मध्यस्थ-तटस्थ नहीं होता । कलहशून्य तथा मायावर्जित नहीं होता । कलहशून्य एवं सम्यक्दृष्टि प्राप्त पुरुषों के सदृश नहीं होता । उसे ऐसा नहीं होना चाहिये। उसे अक्रोधन-क्रोधरहित, अकर्कशभाषी, उपशान्त युद्ध-कलह का अनुद्दीरक, न्यायभाषी, कलह वर्जित एवं मध्यस्थ रहना चाहिये । इस प्रकार पूर्व सूचित दोषों का वर्जन कर जो आचार्य के निर्देश का पालन करता है, उनके उपदेश को क्रियान्वित करता है वह सूत्र में दी गई शिक्षा के अनुसार प्रवृत्ति करता है । मूलगुण तथा उत्तरगुण युक्त संयम के परिपालन में उसका मन संलग्न रहता है । अथवा वह अनाचार-दोष युक्त आचरण करता हुआ गुरु आदि के समक्ष लज्जा अनुभव करता है । वह जीव आदि पदार्थों में एकान्त दृष्टि रखता है-उनमें दृढ़ आस्था रखता है । यहाँ 'एगंतसड्ढि' यह पाठान्तर प्राप्त होता है। तदनुसार मौनीन्द्र-तीर्थंकर द्वारा प्रतिपादित.मार्ग में एकांतरूप से श्रद्धावान् होता है । यहां प्रयुक्त चकार पहले कहे गये दोषों के विरुद्ध गुणसमुच्चय का ज्ञापक है । जैसे जो अपने आचार्य का नाम नहीं छिपाताक्रोधाविष्ट नहीं होता तथा युद्धप्रिय नहीं होता वही पुरुष माया रहित-छलप्रपंच वर्जित होता है । वह छद्म-छल कपट के साथ गुरु की सेवा नहीं करता तथा अन्य किसी के साथ छद्म पूर्ण व्यवहार नहीं करता ।
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