Book Title: Sutrakritang Sutra
Author(s): Sudarshanlal Acharya, Priyadarshan Muni, Chhaganlal Shastri
Publisher: Shwetambar Sthanakvasi Jain Swadhyayi Sangh

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Page 597
________________ ग्रन्थनामकं अध्ययनं टीका एवं दृष्टान्तं प्रदर्श्य दान्तिकं प्रदर्शयितुमाह-' एव' नित्युक्तप्रकारेण तु शब्दः पूर्वस्माद्विशेषं दर्शयति, पूर्व ह्यसंजात पक्षत्वादव्यक्तता प्रतिपादिता इह त्वपुष्टधर्मतयेत्ययं विशेषो, यथा द्विजपोतमसंजातपक्षं स्वनीडान्निर्गतं क्षुद्रसत्त्वा विनाशयन्ति एवं शिक्षमभिनवप्रव्रजितं सूत्रार्थानिष्पन्नमगीतार्थम् 'अपुष्टधर्माणं' सम्यगपरिणतधर्मपरमार्थं सन्तमनेके पापधर्माण: पाषण्डिकाः प्रतारयन्ति, प्रतार्य च गच्छसमुद्रान्निःसारयन्ति, निःसारितं च संतं विषयोन्मुखतामापादितमपगतपरलोकभयमस्माकं वस्यमित्येव मन्यमानाः यदिवा 'बुसिम 'न्ति चारित्रं तद् असदनुष्ठानतो निःसारं मन्यमाना अजातपक्षं 'द्विजशावमिव' पक्षिपोतमिव ढङ्कादयः पापधर्माणो मिथ्यात्वाविरतिप्रमादकषायकलुषितान्तरात्मानः कुतीर्थिकाः स्वजना राजादयो वाऽनेके बहवो हृतवन्तो हरति हरिष्यन्ति चेति, कालत्रयोपलक्षणार्थं भूतनिर्देश इति, तथाहि - पाषण्डिका एवमगीतार्थं प्रतारयन्ति, तद्यथा - युष्मद्दर्शने नाग्निप्रज्वालनविषापहारशिखाच्छेदादिकाः प्रत्यया दृश्यन्ते तथाऽणिमाद्यष्टगुणमैश्वर्यं च नास्ति, तथा न राजादिभिर्बहुभिराश्रितं, याऽप्यहिंसोच्यते भवदागमे साऽपि जीवाकुलत्वाल्लोकस्य दुःसाध्या, नापि भवतां स्नानादिकं शौचमस्तीत्यादिकाभिः शठोक्तिभिरिन्द्रजालकल्पाभिर्मुग्धजनं प्रतारयन्ति, स्वजनादयश्चैवं विप्रलम्भयन्ति, तद्यथाआयुष्मन् ! न भवन्तमन्तरेणास्माकं कश्चिदस्ति पोषकः पोष्यो वा त्वमेवास्माकं सर्वस्वं त्वया विना सर्वं शून्यमाभाति, तथा शब्दादिविषयोपभोगामन्त्रणेन सद्धर्माच्च्यावयन्ति, एवं राजादयोऽपि दृष्टव्याः, तदेवमपुष्टधर्माणमेकाकिनं बहुभिः प्रकारैः प्रतार्यापरेयुरिति ॥३॥ - टीकार्थ इस प्रकार दृष्टान्त उपस्थित कर अब उसका सार बतलाते हुए कहते हैं - यहां 'तु' शब्द पहले की अपेक्षा विशेषता को प्रकट करने के अर्थ में है। पहले की गाथा में पंख न निकलने के कारण अव्यक्तताअविकसितता या असमर्थता बतलाई गई है । इस गाथा में अपुष्ट धर्मता-धर्म में अपुष्टता या अपरिपक्वता के कारण असमर्थता बतलाई गई है । यह विशेषता है । जैसे अपने घोंसले से निर्गत निकले हुए पंख रहित पक्षी बच्चे को शूद्र प्राणी-हिंसक जीव विनष्ट कर देते हैं, मार डालते हैं, उसी प्रकार सूत्र के अर्थ में अनिष्पन्नअनिष्णात, अगीतार्थ-धर्म तत्त्व के अवेत्ता नवशिक्षित नवदीक्षित शिष्य को बहुत से पाखण्डी - परमतवादी प्रतारित करते हैं- प्रवञ्चित करते हैं, ठगते हैं। संघ रूपी समुद्र से बाहर खींच लेते हैं। बाहर खिंचे हुए, निकाले हुए उस नव दीक्षित साधु को वे विषयोन्मुख बना देते हैं तथा परलोक के भय से रहित कर देते हैं। तत्पश्चात वह उसे वशगत मानते हुए अथवा असद् अनुष्ठान में निरत होने के कारण चारित्र को निःसार मानते हुए पंख रहित पक्षी के बच्चे को जिस प्रकार ढंक आदि हर लेते हैं वे पापधर्मा - पापिष्ठजन मिथ्यात्व, अविरति, प्रमाद तथा कषाय से कलुषितात्मा अन्य तीर्थिक अपने पारिवारिक जन, राजा आदि या अनेक दूसरे लोग वैसे व्यक्ति का हरण करते रहे हैं और करते रहेंगे। यहां तीनों कालों को उपलक्षित करने हेतु भूतकाल का प्रयोग हुआ है । पाखण्डी पुरुष धर्म में अगीतार्थ अकुशल साधु को प्रवञ्चित करते हैं- धोखा देते हैं । वे कहते हैं कि तुम्हारे सिद्धान्त में अग्नि प्रज्वालन, विषापहरण तथा शिखाच्छेद आदि प्रत्यय-उपक्रम दृष्टिगोचर नहीं होते । तथा अणिमा आदि आठ विध ऐश्वर्य सिद्धियों का भी प्रतिपादन नहीं है । राजा आदि बहुत से लोगों द्वारा वह अनाश्रित है । आपके आगम में जो अहिंसा का निरूपण है, वह भी इस जीवाकुल- जीवों से परिपूर्ण संसार में दुःसाध्य है-कठिनाई से सधने योग्य है अर्थात् असाध्यवत् हैं । स्नान, शौच दैहिक शुद्धि भी नहीं है, इस प्रकार वे इन्द्रजाल के समान शठतापूर्ण मूर्खतायुक्त - दुष्टतायुक्त वचनों से भोले भाले लोगों को धोखा देते हैंठगते हैं । उनके पारिवारिक जन उसे इस प्रकार विप्रलब्ध करते हैं-ठगते हैं कि 'आयुष्मान ! तुम्हारे बिना हमारा कौन पोषक-परिलाभक है अथवा हमारा कौन पौष्य है- हम किसका पोषण करें तुम ही हमारे सर्वस्व 569 -

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