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श्री याताथ्याध्ययन अनुवाद - जो पूछे जाने पर अपने गुरु का नाम छिपाते हैं, वे अपने को मोक्ष से वंचित करते हैं। वे वास्तव में असाधु हैं । किन्तु अपने को साधु माने हुए हैं । वे मायान्वित-छलना या प्रवञ्चना से युक्त पुरुष अनन्त बार संसार के दुःख पाते हैं।
टीका - किञ्चान्यत्-ये केचिनाविदितपरमार्थ:स्वल्पतया समुत्सेकिनोऽपरेण पृष्टाः- कस्मादाचार्यात्सकाशादधीतं श्रुतं भवद्भिरिति, ते तु स्वकीयमाचार्यं ज्ञानावलेपेन निहनुवाना अपरं प्रसिद्ध प्रतिपादयन्ति, यदिवा मयैवैतत्स्वत उत्प्रेक्षितमित्येवं ज्ञानावले पात् 'पलिउंचयंत्ति' त्ति निह नुवते, यदिवा-सदपि प्रमादस्खलितमाचार्यादिनाऽऽलोचनादिके अवसरे पृष्टाःसन्तो मातृस्थानेनावर्णवादभयान्निहनुवते।त एवं परिकुञ्चकानिहवं कुर्वाणा आदीयत इत्यादानं-ज्ञानादिकं मोक्षोवा तमर्थं वञ्चयन्ति-भ्रंशयन्त्यात्मनः, खलुरवधारणेवञ्चयन्त्येव । एवमनुष्ठायिनश्चासाधवस्ते परमार्थ तस्तत्त्वचिन्तायाम् 'इह' अस्मिन् जगति साधुविचारे वा 'साधुमानिन' आत्मोत्कर्षात् सदनुष्ठानमानिनो मायान्वितास्ते 'एष्यन्ति' यास्यन्ति 'अनन्तशो' बहुशो 'घातं' विनाशं संसारं वा अनवदग्रं संसारकान्तारमनुपरिवर्तयिस्यन्तीति, दोषद्वयवुष्टत्वात्तेषाम्, एकं तावत्स्वयमसाधवो द्वितीयं साधुमानिनः, उक्तंच
"पावं काऊण सयं अप्पाणं सुद्धमेव बाहरइ । दुगुणं करेइ पावं बीयं बालस्स मंदत्तं ॥१॥" छाया - पापं कृत्वा स्वयं आत्मानं शुद्धमेव व्याहरति । द्विगुणं करोति पापं द्वितीयं बालस्य मंदत्वम् ॥१॥
तदेवमात्मोत्कर्षदोषारोधिलाभमप्यु पहत्यानन्तसंसार भाजो भवन्त्यसुमन्त इति स्थितम् ॥४॥ मानविपाकमुपदाधुना क्रोधादिकषायदोषमुद्भावयितुमाह -
टीकार्थ - जो पुरुष परमार्थ-यथार्थ तत्त्व को-सत्य को नहीं जानते वे थोड़ी सी विद्या पाकर अत्यन्त समुत्सेक-अभिमान से भर जाते हैं । किसी द्वारा यह पूछे जाने पर कि 'आपने किन आचार्य से शास्त्राध्ययन
तो वे जानावलेप-अपनी विद्या के गर्व के कारण अपने आचार्य का नाम निहनत करते हैं-छिपाते हैं तथा किन्हीं दूसरे प्रसिद्ध आचार्य का नाम बता देते हैं अथवा मैंने तो खुद ही इन शास्त्रों को उत्प्रेक्षित किया है-इनका अध्ययन-अनुशीलन किया है ।" यह कहकर अपनी विद्या के घमंड से गुरु का नाम छिपा लेते हैं अथवा प्रमादवश स्खलन हो जाय-भूल हो जाय तो वे आलोचना आदि के अवसर पर आचार्य द्वारा पूछे जाने पर इस भय से कि 'इससे-बताने से मेरी निन्दा होगी' वास्तविकता को छिपाते हैं । इस प्रकार वे अपने आचार्य का नाम छिपाने वाले पुरुष अपने आपको ज्ञान आदि से, मोक्ष से वंचित करते हैं । यहां प्रयुक्त 'खलु' शब्द निश्चय के अर्थ में है, तदनुसार वे अवश्य ही अपने को वंचित करते हैं-भ्रष्ट करते हैं, यह अभिप्राय है । इस प्रकार आचरण करने वाले वे तत्वतः असाधु है । वे इस जगत में साधुत्व की चर्चा के प्रसंग पर अभिमान के कारण अपने आपको साधु कहने का दम्भ करते हैं । परन्तु वे मायावी है-छलप्रपंच में लग्न है, साधु नहीं है । वे अनन्तकाल पर्यन्त विनाश को प्राप्त करेंगे । संसार रूपी गहन वन में भटकेंगे । वे दो प्रकार से दोषलिप्त है । एक तो वे स्वयं असाधु हैं तथा दूसरे साधु होने का दम्भ करते हैं । इसलिये कहा है कि जो स्वयं पाप करके भी अपने आपको शुद्ध-निष्पाप बतलाता है, वह दुगुना पाप करता है । यह बाल-अज्ञानी प्राणी की दूसरी मन्दता-मूर्खता है । इस प्रकार निह्नव अपने अहंकार के कारण बोधिलाभ को भी उपहतविनष्ट कर देते हैं तथा वे अनन्त संसार भागी होते हैं-अनन्त बार संसार में आवागमन करते हैं । यह वस्तु स्थिति है।
अभिमान करने पर विपाक-फल उपदर्शित कर अब सूत्रकार क्रोध आदि कषायों के दोषों की उद्भावना करने हेतु कहते हैं -
किया है
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