Book Title: Sutrakritang Sutra
Author(s): Sudarshanlal Acharya, Priyadarshan Muni, Chhaganlal Shastri
Publisher: Shwetambar Sthanakvasi Jain Swadhyayi Sangh

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Page 573
________________ श्री याताध्याध्ययनं प्ररूपित सम्यक्दर्शन मूलक मोक्षमार्ग का अपने अहङ्कार या दुराग्रह के कारण स्वीकार नहीं करते हुए निव तथा दिगम्बर अपनी रूचि नहीं करते हुए निह्नव तथा दिगम्बर अपनी रूचि द्वारा रचित सिद्धान्तों के आधार पर निर्दोष सर्वज्ञ प्रतिपादित मोक्ष मार्ग का विध्वंस करते हैं, कुमार्ग की प्ररूपणा करते हैं । उनका कथन है कि जो क्रियमान-किये जाते हुए कार्य को कृत्- किया हुआ कहता है वह प्रत्यक्ष विरुद्ध प्ररूपण करता है, सर्वज्ञ नहीं होता । जो पात्र आदि परिग्रह रखते हुए भी मोक्ष प्राप्त होने का निरूपण करता वह सर्वज्ञ नहीं हो सकता । इस प्रकार सर्वज्ञोक्त मोक्ष मार्ग में मोक्ष निरूपक सिद्धान्तों में श्रद्धा नहीं करते। कई ऐसे हैं जो सर्वज्ञ द्वारा उपदिष्ट सिद्धान्तों में विश्वास रखते हुए भी यथावत स्वीकार किये संयमरूपी भार को धृति-धैर्य संहनन-दैहिक स्थिति आदि की दुर्बलता के कारण वहन करने में संयम का निर्वाह करने में सक्षम नहीं होते । कई ऐसे हैं जो संयम पालन में विषण्ण-शिथिल या अस्थिर होने लगते हैं, तब आचार्य आदि द्वारा वात्सल्यपूर्वक संयम पालन में प्रेरित किये जाने पर भी उपदेश या अनुशासन करने वालों में प्रति परुष, कर्कश या निष्ठुर, प्रतीप - विपरीत वचन बोलते हैं । विसोहियं ते अणुकाहयंते, जे आतभावेण वियागरेज्जा । अट्ठाणिए होइ बहूगुणाणं, जे णाणसंकाइ मुसं वदेज्जा ॥३॥ विशोधितन्ते ऽनुकथयन्ति ये आत्मभावेन व्यागृणीयुः । अस्थानिको भवति बहुगुणानां ये ज्ञानशङ्कया मृषा वदेयुः ॥ छाया अनुवाद - वीतराग प्ररूपित मार्ग विशोधित - समग्र दोषरहित है तो भी वे निह्मव अहंकार के उसके दोषों का अनुकथन करते हैं-दोषारोपण करते हैं । वे अपनी रूचि के अनुरूप परम्परा प्राप्त करते हैं। अपनी रूचि के अनुरूप परम्परा प्राप्त सद्दर्शन से भिन्न विवेचन अपलाप करते हैं। वे उत्तम गुणों के अस्थानिकअपात्र हैं । - टीका - किञ्च - विविधम्- अनेककारं शोधितः कुमार्गप्ररूपणापनयनद्वारेण निर्दोषितां नीतो विशोधितः सम्यग्दर्शनज्ञानचारित्राख्यो मोक्षमार्गस्तमेवंभूतं मोक्षमार्गं ' ते ' स्वाग्रहग्रहग्रस्ता गोष्ठामाहिलवदनु-पश्चादाचार्यप्ररूपणातः कथयंति-अनुकथयन्ति । ये चैवंभूता आत्मोत्कर्षात्स्वरूचिविरचित व्याख्याप्रकार व्यामोहिता 'आत्मभावेन' स्वाभिप्रायेणाचार्यपारम्पर्येणायातमप्यर्थं व्युदस्यान्यथा 'व्यागृणीयुः' व्याख्यानयेषुः, ते हि गंभीराभिप्रायं सूत्रार्थं कर्मोदयात्पूर्वापरेण यथावत्परिणामयितुमसमर्थाः पंडितमानिन उत्सूत्रं प्रतिपादयन्ति । आत्मभावव्याकरणं च महतेऽनर्थायेति दर्शयति-'स' एवंभूतः स्वकीयाभिनिवेशाद् 'अस्थानिकः' अनाधारो बहूनां ज्ञानादिगुणानामभाजनं भवतीति, ते चामी गुणाः "सुस्सूसइ पडिपुच्छइ सुणेइ गेण्हइ य ईहए आवि । तत्तो अपोहए वा धारेइ करेइ वा सम्मं ॥१॥ छाया - शुश्रूषते प्रतिपृच्छति शृणोति गृह्णाति ईहतेचापि । ततोऽपोहते वा धारयति करोति वा सम्यक् ॥१॥ यदिवा गुरुशुश्रुषादिना सम्यग्ज्ञानावगमस्ततः सम्यगनुष्ठानमतः सकलकर्मक्षय लक्षणो मोक्ष इत्येवंभूतानां गुणानामनायतनमसौ भवति, क्कचित्पाठ: 'अट्टाणिए होंति बहूणिवेस'- त्ति अस्यायमर्थः अस्थानम्-अभाजनमपात्रमसौ भवति सम्यग्ज्ञानादीनां गुणानां किंभूतो ? बहु: अनर्थसंपादकत्वेनासदभिनिवेशो यस्य स 545

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