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श्री याताथ्याध्ययनं
त्रयोदशं श्रीयातायाध्ययन
आहत्तहीयं तु पवेयइस्सं, नाणप्पकारं पुरिसस्स जातं । . सओ अ धम्मं असओ असीलं, संतिं असंतिं करिस्सामि पाउं ॥१॥ छाया - याथातथ्यन्तु प्रवेदयिष्यामि, ज्ञानप्रकारं पुरुषस्यजातम् ।
सतश्च धर्म मसतश्चा शीलं शान्तिमशान्तिञ्च करिष्यामि प्रादुः ॥ अनुवाद - श्री सुधर्मा स्वामी प्रतिपादित करते हैं-मैं याथा तथ्य-सत्य तत्त्व प्रवेदित करूंगा-बतलाऊंगा। ज्ञान के प्रकार-भेद, उनका सार कहूँगा । जीवों के सत् असत् गुणों का वर्णन करूंगा। उत्तम साधुओं के शीलपवित्र आचरण तथा असाधुओं का कुशील-कुत्सित आचरण बताऊंगा । शांति-मोक्ष तथा अशांति-संसार का स्वरूप व्याख्यात करूंगा ।
टीका - अस्य चानन्तरसूत्रेण सहायं संबन्धः, तद्यथावलयाविमुक्तेत्यभिहितं, भाव वलयं रागद्वेषौ' ताभ्यां विनिर्मुक्तस्यैव याथातथ्यं भवतीत्यनेन संबंधेनायाततस्यास्य सूत्रस्य व्याख्याप्रतन्यते-यथातथाभावो याथातथ्यंतत्त्वं परमार्थः, तच्च परमार्थचिन्तायां सम्यग्ज्ञानादिकं, तदेवदर्शयति-'ज्ञानप्रकार' मिति प्रकार शब्द आद्यर्थे, आदिग्रहणाच्च सम्यग्दर्शनचारित्रे गृह्येते, तत्र सम्यग्दर्शनम्-औपशमिकक्षायिकक्षायोपशमिकं गृह्यते, चारित्रं तु व्रतसमितिकषायाणं धारणरक्षणनिग्रहादिकं गृह्यते, एतत्सम्यग्ज्ञानादिकं 'पुरुषस्य' जन्तोर्यज्जातम्-उत्पन्नं तदहं 'प्रवेदयिष्यामि' कथयिष्यामि, तुशब्दो विशेषणे, वितथा चारिणस्तदोषांश्चाविर्भावयिष्यामि, 'नानाप्रकारं' वा विचित्रं पुरुषस्य स्वभावम्-उच्चावचं प्रशस्ताप्रशस्तरूपं प्रवेदयिष्यामि । नानाप्रकारं स्वभावं फलं च पश्चार्थेन दर्शयति'सतः' सत्पुरुषस्य शोभनस्य सदनुष्ठायिनः सम्यग्दर्शनज्ञान चारित्रवतो 'धर्म' श्रुतचारित्राख्यं दुर्गतिगमनधरण लक्षणं वा तथा 'शीलम्' उद्युक्तविहारित्वं तथा 'शांति' निवृत्तिमशेषकर्मक्षयलक्षणां करिस्सामि पाउ' त्ति प्रादुष्करिष्ये प्रकटयिष्यामि यथावद् उद्भावयिष्यामि, [ग्रन्थाग्रं. ७०००] तथा 'असतः' अशोभनस्य परतीर्थिकस्य गृहस्थस्य वा पार्श्वस्थादेर्वा, चशब्दसमुच्चितमधर्म-पापं तथा 'अशीलं' कुत्सितशीलमशांतिं च-अनिर्वाणरूपां संसृतिं प्रादुर्भावयिष्यामीति। अत्र च सतोधर्म शीलं शान्तिं च प्रादुष्करिष्यामि, असतश्चाधर्ममशीलमशान्तिं चेत्येवं पदघटना योजनीया, अनुपात्तस्य (च) च शब्देनाक्षेपो द्रष्टव्य इति ॥१॥
टीकार्थ - इस सूत्र का पहले के सूत्र के साथ इस प्रकार संबंध है । पहले के अध्ययन के आखिरी सूत्र में बतलाया गया है कि साधु वलय-माया से विमुक्त रहे । यहाँ राग और द्वेषभाव वलय है, उनसे विनिर्मुक्त होकर-छूटकर जो रहता है, उसी को याथातथ्य-यथार्थतत्त्व या सत्यतत्त्व प्राप्त होता है । इस संबंध से आये हुए इस सूत्र की व्याख्या की जाती है । जो जैसा है-सत्य सत्त्व है उसको याथातथ्य कहा जाता है । अर्थात् परमार्थ ही याथातथ्य है । उसका चिन्तन करने पर सम्यग्ज्ञान आदि इस कोटि में हैं, सूत्रकार उसी का दिग्दर्शन कराते हुए कहते हैं । "ज्ञान प्रकारम्" प्रकार शब्द आदि के अर्थ में है । आदि से यहां सम्यक्दर्शन, सम्यक् चारित्र का ग्रहण होता है । उसके अन्तर्गत सम्यक्दर्शन के औपशमिक, क्षायिक एवं क्षायोपशमिक रूप गृहीत किये जाते हैं । चारित्र में व्रतों का धारण, समितियों का रक्षण तथा कषायों का निग्रह गृहीत किया जाता है। पुरुष को जो यह सम्यक् ज्ञान आदि उत्पन्न होते हैं, मैं उनको प्रवेदित करूंगा-कहूँगा । यहाँ प्रयुक्त 'तु' शब्द
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