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श्री सूत्रकृताङ्ग सूत्रम् सहेसु रूवेसु असजमाणो, गंधेसु रसेसु अदुस्समाणे । णो जीवितं णो मरणाहिकंखी, आयाणगुत्ते वलया विमुक्के ॥२२॥ त्तिबेमि॥ छाया - शब्देषु रूपेष्वसज्जमानो गंधेषु रसेषु चाद्विषन् ।
नो जीवितं नो मरणावकांक्षी, आदानगुप्तोवलयाद् विमुक्त इति ब्रवीमि ॥ अनुवाद - साधु मनोज्ञ-प्रीतिपद शब्द, रूप, गंध तथा रस में अनासक्त रहे । वह अमनोज्ञ-अप्रीतिकर शब्द रूप गंध एवं रस में द्वेष न करें उन्हें बुरा न मानें । वह जीवन तथा मृत्यु की आकांक्षा न करे। वह आदान गुप्त-संयमयुक्त तथा वलयविमुक्त-माया रहित होकर विचरण करे । मैं ऐसा कहता हूँ ।
टीका - साम्प्रतमध्ययनार्थमुपसंजिहीर्घःसम्यग्वादपरिज्ञानफलमादर्शयन्नाह-'शब्देषु'वेणुवीणादिषु श्रुतिसुखदेषु 'रूपेषु च' नयनानन्दकारिषु 'आसङ्गमकुर्वन्' गाय॑मकुर्वाणः, अनेन रागो गृहीतः, तथा 'गंधेषु' कुथितकलेवरादिषु 'रसेषु च' अन्तप्रान्ताशनादिषु अदुष्यमाणोऽमनोज्ञेषु द्वेषमकुर्वन्, इदमुक्तं भवति-शब्दादिष्विन्द्रियविषयेषु मनोज्ञेतरेषु रागद्वेषाभ्यामनपदिश्यमानो 'जीवितम्' असंयमजीवतं नाभिकाङ्क्षत्, नापि परीषहोपसगैरभिद्रुतो मरणमभिकाङ्क्षत्, यदिवा जीवितमरणयोरनभिलाषी संयममनुपालयेदिति । तथा मोक्षार्थिनाऽऽदीयते गृह्यत इत्यादानंसंयमस्तेन तस्मिन्वा सति गुप्तो, यदिवा-मिथ्यात्वादिनाऽऽदीयते इत्यादानम्-अष्टप्रकारं कर्म तस्मिन्नादातव्येमनोवाक्कायैर्गुप्तः समितश्च, तथा भाववलयं-माया तया विमुक्तो मायामुक्तः । इतिः परिसमाप्त्यर्थे । ब्रवीमीति पूर्ववत्। नयाः पूर्ववदेव ॥२२॥
॥ समाप्तं समवसरणाख्यं द्वादशमध्ययनमिति ॥ टीकार्थ - अब सूत्रकार इस अध्ययन का उपसंहार करने की इच्छा लिये सम्यकवाद् के परिज्ञान का फल बताने हेतु प्रतिपादित करते हैं । साधु श्रुति सुखद-कर्णप्रिय, वेणु तथा वीणा आदि के शब्दों में नयनानन्दकारी
आंखों के लिये आनन्दप्रद रूपों में मोहासक्त न बनें । उनमें गृद्धि-लोलुपता न रखे। यों कहकर राग को गृहीत किया गया है-राग के परित्याग का निर्देश किया गया है । साधु कथित कलेवर आदि के सड़े गले शरीर आदि के अप्रिय गंध में तथा अंत प्रांत आहारादि के अप्रिय रस में द्वेष न करे । कहने का अभिप्राय यह है कि साधु मनोज्ञ एवं अमनोज्ञ शब्द आदि इन्द्रिय विषयों में राग द्वेष से दूर रहता हुआ असंयममय जीवन की अभिंकांक्षा न करे । वह परीषहों एवं उपसर्गों से अभिद्रुत-उद्वेजित होकर मृत्यु की अभिकांक्षा न करे । साधु जीवन एवं मृत्यु की अभिलाषा न करता हुआ संयम का अनुपालन करे । मुमुक्षु पुरुष जिसे ग्रहण करता है, उसे आदान कहा जाता है, वह संयम है । साधु उस द्वारा गुप्त होकर-आत्मरक्षित होकर रहे । अथवा मिथ्यात्व आदि द्वारा जो अपनाया जाता है वह आदान कहा जाता है, वह अष्टविधकर्म है । उसके आदातव्य-ग्राह्यत्व में या ग्रहण करने में वह मन, वचन, शरीर द्वारा गुप्त रहे-मानसिक, वाचिक तथा कायिक गुप्तियों का पालन करे । एवं समितियों से युत रहे । वह भाववलय-माया से विमुक्त रहे ।
यहां इति शब्द समाप्ति के अर्थ में है । ब्रवीमि पहले की ज्यों है । तथा नय भी पहले की ज्यों है।
॥ समवसरण नामक बारहवां अध्ययन समाप्त हुआ ।
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