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श्री सूत्रकृताङ्ग सूत्रम् एक पदार्थ की अन्य पदार्थों से व्यावृत्ति-अलग पहचान प्राप्त होती है । उस संबंध में विचार करते हैं-उन विशेषों में जो विशेषात्मक बुद्धि होती है वह क्या किसी अन्य विशेष पर टिकी हुई है । यदि वह अपर विशेषकिसी अन्य विशेष पर आश्रित है, ऐसा नहीं कहा जा सकता क्योंकि आगे से आगे यह आश्रितता का प्रसंग चलता रहेगा जिससे अनवस्था दोष उपस्थित होगा । इसलिये जैसे अन्य विशेषों के बिना भी विशेषों में विशेष बुद्धि होती है, उसी प्रकार द्रव्यादि में भी विशेष बुद्धि मानी जा सकती है । फिर द्रव्यादि के अतिरिक्त विशेषनामक पृथक् पदार्थ क्यों माना जाय । द्रव्यों से अव्यतिरिक्त-अपृथक् विशेष तो हम भी स्वीकार करते हैं, क्योंकि सभी पदार्थ सामान्य विशेषात्मक है । वैशेषिक जो यह मानते हैं कि विशेष तो नित्य द्रव्य वृत्ति है-सदा द्रव्य में रहते हैं तथा अन्त्य है-सबके अंत में रहते हैं । नित्य द्रव्य चार प्रकार के हैं-परमाणु, मुक्तात्मा और मुक्तमन । इनमें विशेष विद्यमान रहता है । यह कथन नियुक्तिक है-युक्तिशून्य है । अपकर्णयित्व-अश्रवणीय है और केवल उन द्वारा की गई व्याख्या है । वैशेषिक दर्शन में समवायनामक एक पदार्थ माना गया है । वहां कहा जाता है कि अयुक्तसिद्ध-परस्पर एक दूसरे के बिना नहीं रहने वाले आधार आधेयभूत जो पदार्थ है, उनमें जो प्रतीति का हेतु है, उनकी जो प्रतीति कराता है वह समवाय है । वह नित्य है, एक है । उसको नित्य मानने से जितने समवायी हैं वे सभी नित्य माने जायेंगे । यदि समवायियों को अनित्य माना जाय तो समवाय भी अनित्य सिद्ध होगा क्योंकि समवायी ही उसका आधार है। समवाय के एकत्व के कारण-समवाय एक है । ऐसा माना जाने से सभी समवायी भी एक माने जायेंगे-यह कठिनाई पैदा होगी । यदि समवायियों को अनेक कहा जाय तो समवाय भी अनेक होंगे ।
वैशेषिक दर्शन में समवाय को संबंध स्वीकार किया गया है । संबंध द्विष्ठ होता है-दो में रहता है। अतः दण्ड और दण्डी-दण्डधारी की तरह भिन्न भिन्न होने से उसके आश्रयभूत पदार्थयुत सिद्ध होते हैं-दोनों मिलकर सिद्ध होते हैं, वे अयुत सिद्ध नहीं होते । वीरणों से-लम्बे तृण आदि से कट-चटाई की उत्पत्ति होने पर वीरण रूप को नाश और कट रूप से उत्पाद होता है । दूध और दही के अन्वित होने की तरह यह है। इस प्रकार वैशेषिक दर्शन में उस द्वारा स्वीकृत पदार्थों की व्यवस्था सम्यक् घटित नहीं होती।
अब सांख्य दर्शन के तत्त्वों का निरूपण किया जाता है । सांख्य दर्शन के अनुसार प्रकृति तथा आत्मा या पुरुष के संयोग से सृष्टि की उत्पत्ति होती है । सत्वगुण, रजोगुण तथा तमोगुण की साम्यावस्था को प्रकृति कहा जाता है । प्रकृति से महत्-बुद्धि की उत्पत्ति होती है । महत् से अहंकार, अहंकार से एकादश इन्द्रिय एवं पांचतन्मात्राएं तथा पांच तन्मात्राओं से पांच महाभूतों की उत्पत्ति होती है । पुरुष-आत्मा का स्वरूप चैतन्य है । वह अकर्ता-कर्तृत्वयुक्त नहीं है । निर्गुण-गुणरहित है तथा भोक्ता है । जैन दर्शन के अनुसार कहते हैंसत्त्व आदि गुण जो परस्पर विरुद्ध हैं, प्रकृत्यात्मक है, किसी नियामक गुणी के बिना एकत्र नहीं हो सकते। जैसे कृष्ण श्वेत आदि गुण नियामक के बिना एकत्र नहीं होते। महत् आदि विकारों के जन्य होने पर प्रकृति में विषमता उत्पादन हेतु सांख्यदर्शन में कोई हेतु नहीं माना गया है । इसलिये उसमें-प्रकृति में अपने अतिरिक्त अन्य वस्तु की उत्पत्ति नहीं हो सकती-विषमता निष्पन्न नहीं हो सकती । आत्मा का अकर्तृत्व मानने के कारण वह अकिञ्चित कर है-कुछ नहीं कर सकता । यदि प्रकृति में स्वभावतः वैषम्य है, यों माना जाय तो वह निर्हेतक होगा। ऐसी स्थिति में सत्व-पदार्थ या तो नित्य होंगे अथवा असत्व-अनित्य होंगे। कहा है-यदि कि अन्य हेतु के बिना ही प्रकृति में विषमता का उत्पन्न होना स्वीकार किया जाय तो सभी पदार्थ सत् होंगे या असत् होंगे क्योंकि हेतु की अपेक्षा से ही पदार्थ सत् होते हैं तथा कभी सत् नहीं होते हैं । महत् तथा अहंकार संवेदन से भिन्न नहीं है क्योंकि मैं सुखी हूं, मैं दु:खी हूँ ऐसा जो ज्ञान है वही बुद्धि अध्यवसाय या अहँकार है । वे-बुद्धि एवं अहंकार चिद्रूप होने के कारण आत्मगुण हैं । वे जड़ प्रकृति के विकार नहीं है-उससे उत्पन्न
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