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श्री सूत्रकृताङ्ग सूत्रम् का भेद होता है । इससे द्रव्य भेद मानना अप्रासंगिक है । आकाश, काल को तो हमने भी (जैनों ने भी) द्रव्य रूप में स्वीकार किया है । दिशा आकाश के अवयव का रूप लिये हुए हैं । अतः उसे भी पृथक् द्रव्य स्वीकार नहीं किया जा सकता क्योंकि ऐसा करना अप्रासंगिक होगा । आत्मा जो स्वशरीर व्यापी है तथा जिसका लक्षण-स्वभाव उपयोग है उसका द्रव्यत्व तो हमने भी स्वीकार किया है । मन पुद्गल विशेष का रूप लिये हुए है । अतः उसका परमाणु की ज्यों पुद्गल द्रव्य में ही अन्तरभाव-समावेश हो जाता है । भाव मन जीव का गुण है । इसलिये वह आत्मा में ही अन्तरभूत है । वैशेषिक मतवादी यों अभिहित करते हैं कि पृथ्वीत्व के योग से पृथ्वी है-पृथ्वी का अस्तित्व है इत्यादि । यह भी अपनी प्रक्रिया मात्र-अपने दर्शन की व्याख्या मात्र है क्योंकि पृथ्वी से पृथक् पृथ्वीत्व कोई तत्त्व-कोई पदार्थ नहीं है जिसके योग से पृथ्वी द्रव्य निष्पन्न हो । संसार में जो भी देखा जाता है वह सब सामान्य विशेषात्मक है । उदाहरणार्थ जैसे नरसिंह का आकार उभय-स्वभाव मानव एवं सिंह दोनों का रूप लिये हुए हैं । अत: कहा गया है घड़े का मृतिका के साथ एकान्त रूप में अभेद-अभिन्नता नहीं है क्योंकि इनमें स्पष्टतया भेद की प्रतीति होती है । एकान्ततः भेद भी नहीं है, क्योंकि घट में मृत्तिका का संसर्ग है-घट में मृत्तिका विद्यमान है । अतः घट जो मृत्तिका के साथ कथञ्चित् भेद युक्त तथा कथञ्चित् अभेद युक्त है । वह एक अन्य जाति का पदार्थ है तथा नरसिंह मात्र नर-मनुष्य नहीं है क्योंकि इसमें सिंह रुपत्व भी विद्यमान है-उसमें सिंह का रूप दृष्टिगत होता है, एवं वह सिंह भी नहीं है क्योंकि उसमें मनुष्य का रूप भी है । अतः शब्द, विशिष्ट ज्ञान तथा कार्य की भिन्नता होने के कारण नरसिंह एक भिन्न जातीय पदार्थ है, इत्यादि ।
वैशेषिकों की यह मान्यता है कि रूप, रस, गंध तथा स्पर्श-यह रूपी-मूर्त द्रव्यों में रहते हैं। इसलिये यह उनके विशेष गुण है, और संख्या, परिमाण, पृथकत्व, संयोग विभाग, परत्व एवं अपरत्व-ये सामान्य गुण है क्योंकि इनकी वृत्ति सभी द्रव्यों में है-ये सभी द्रव्यों में प्राप्त होते हैं । बुद्धि, सुख, दुःख, इच्छा, द्वेष, प्रयत्न, धर्म, अधर्म और संस्कार-ये आत्म गुण हैं । पृथ्वी और उद्क-जल में गुरुत्व है । पृथ्वी, जल एवं तेज-अग्नि में द्रव्यत्व है । स्नेह-चिकनापन केवल जल में ही है । वेग नामक संस्कार मूर्त द्रव्यों में ही अवस्थित है। शब्द आकाश का गुण है।
इस संबंध में जैनों का कथन है कि संख्या आदि जो सामान्य गुण है वे रूप आदि की ज्यों द्रव्यों के स्वभाव नहीं है । अपितु वे पर-अन्यों के उपाधि रूप होते हैं । अतः वे गुण नहीं होते हैं। यदि उन्हें गुण कहा जाय तो भी उनको द्रव्यों से पृथक् व्यवस्थित नहीं किया जा सकता-नहीं माना जा सकता, क्योंकि उनको द्रव्यों से पृथक् स्वीकार करने पर द्रव्य के स्वरूप का भी अस्तित्व नहीं रहेगा । (तत्त्वार्थसूत्र अध्याय ५ सूत्र के) अनुसार जो गुणों और पर्यायों से युक्त होता है, उसे द्रव्य कहा जाता है, गुणों के बिना द्रव्य नहीं होता, अतः द्रव्य के ग्रहण से गुण गृहीत हो जाते हैं । यह युक्तिसंगत है । उनका पृथकभाव-उन्हें पृथक् पदार्थ मानना आवश्यक नहीं है।
"तस्यभावस्तत्वम्"-जिस पदार्थ का जो भाव-धर्म या स्वरूप होता है उसे तत्व कहते हैं । जिस गुण के होने से द्रव्य में शब्द का निवेश-प्रवेश या प्रयोग होता है, उस गुण को बताने हेतु "तत्त्वतत्वौ" सूत्र के अनुसार शब्द के साथ भाव प्रत्यय होता है । घट-घड़ा, रक्त-लाल रंग का है । जल का आहारक-लाने वाला है, जलवान है-अपने में जल को स्थापित रखता है-सभी द्वारा ऐसे पदार्थ-वस्तु को घट कहा जाता है । यहां घट का भाव घटत्त्व, रक्त का भाव रक्तत्व, आहार का भाव आहारकत्व तथा जलवान का भाव जलवत्व कहा
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