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श्री समवसरणाध्ययन जाता है । यहां घटत्व से घट सामान्य का रक्तत्त्व से रक्त गुण का तथा आहारकत्व से आहारन क्रिया का जलवत्व से जल द्रव्य का सम्बन्ध सूचित है । इन गुणों से युक्त मोटे गोलाकार जतलाने में समर्थ कुटकाख्य संज्ञक जलपात्र में घट संज्ञक शब्द का अभिनिवेष-प्रवेश या प्रयोग होता है । इसलिये इन गुणों को ज्ञापित करने हेतु घट शब्द के साथ त्व और तल् प्रत्यय होते हैं । इसके स्पष्टीकरण हेतु प्रश्न उठाते हुए कहा जाता है-रक्त नामक मह कौनसा गुण है जिसके होने से घड़ा रक्त कहा जाता है । वह कौन सा द्रव्य है, जिससे शब्द सन्निवेश होता है, जिसके साथ भाव प्रत्यय होता है, क्या "रक्तस्य भावो रक्तत्वम्"-रक्त का-लाल का भाव रक्तत्वलालिमा होता है । ऐसा होना चाहिये । उत्तर में कहा जाता है-होना चाहिये किंतु उपचार से-औपचारिक रूप में ऐसा हो सकता है क्योंकि जैसे रक्त को उपचार से द्रव्य मानकर उसके सामान्य भाव को रक्तत्व कहा जा सकता है किन्तु उपचार का तत्व चिंतन के प्रसंग में कोई उपयोग नहीं है । शब्द सिद्धि में ही-शब्द के साधन मात्र में ही उसकी कृतार्थता-उपयोगिता है । शब्द आकाश का गुण होता ही नहीं क्योंकि शब्द नौद्गलिक है-मूर्त है तथा आकाश अमूर्त है-वैशेषिक दर्शन में निरूपित बाकी के पदार्थ केवल उसकी प्रक्रिया मात्रव्याख्या मात्र है । इसलिये वे न किसी प्रयोजन के साधक है तथा न उसके दूषण रूप या बाधक ही हैं । द्रव्य में समवाय संबंध से रहने वाली क्रिया भी गुण की ज्यों पृथक् तत्व नहीं है-यों मानना युक्तिसंगत है । अब सामान्य की चर्चा करते हैं । वैशेषिकों के अनुसार पर एवं अपर के रूप में सामान्य के दो भेद हैं । द्रव्य आदि पदार्थों में व्याप्त महासत्ता को परसामान्य कहा जाता है । कहा गया है-द्रव्य गुण तथा कर्म में जो सत्ता की-अस्तित्व की प्रतीति होती है वह सत्ता है । द्रव्यत्व, गुणत्व एवं कर्मत्व अपर सामान्य हैं । जैनों का कथन है कि महासत्ता को पृथक् पदार्थ स्वीकार करना युक्तिसंगत नहीं है क्योंकि उस सत्ता में सत् होने कीअस्तित्व की ज्यों प्रतीति होती है । वह क्या किसी अपर-अन्य सत्ता से निबद्ध है ? अन्य के होने से होती है अथवा स्वतः होती है । यदि यह कहा जाय कि अपर सत्ता के निबन्धन से वह होती है तो फिर यह विकल्प होगा कि इस अपरसत्ता में सत् होने की प्रतीति किससे होती है । यह विकल्प आगे से आगे चलेगा । यों अनवस्था दोष उपस्थित होगा । यदि कहो कि महासत्ता में स्वतः ही सत् होने की-अस्तित्व की प्रतीति होती है, किसी अन्य वस्तु से नहीं तो फिर द्रव्य आदि में स्वतः ही सत् प्रत्यय-सत्ता की प्रतीति होगी । फिर अजा के गलस्तन-बकरी के गले के स्तन के समान निरर्थक ही एक अन्य सत्ता की कल्पना क्यों की जाय । दूसरी बात यह है-द्रव्य आदि जो सत् है उन्हें वैसा मानकर उनमें आप सत्ता के द्वारा सत् की प्रतीति स्वीकार करते हैं, या उनको असत् मानकर । यदि उन्हें सत् मानते हो तब तो स्वयं ही सत् की प्रतीति होगी । फिर सत् की प्रतीति हेतु सत्ता की क्या आवश्यकता रहेगी ? यदि द्रव्य आदि असत् मानते हुए उनमें सत्ता द्वारा सत् की प्रतीति स्वीकार करते हो, तब को शशविषाण-खरगोश के सींग आदि में भी सत्ता के योग से सत् की प्रतीति संभावित है । अतएव कहा गया है-पदार्थ स्वयं ही सत् है-स्वयं उनका अस्तित्व है जो सदात्मक है, उन्हें सत्ता की क्या आवश्यकता है । जो पदार्थ असदात्मक-असत् है, अस्तित्वहीन है, उनमें सत्ता स्वीकार ही नहीं की जा सकती, की जाय तो शशविषाण आदि में भी उसका प्रसंग बनेगा । जो अतिप्रसंग-अप्रासांगिक है । यही दोष जो यहां महासत्ता के संदर्भ में लागू होते हैं । द्रव्यत्व आदि अपर सामान्य में भी आयोजनीय है, क्योंकि इन दोनों का योगक्षेम-टिकाव एक ही है । हम भी कथंचित-किसी अपेक्षा से वस्तु को सामान्य विशेषात्मक स्वीकार करते हैं । सामान्य द्रव्य से किञ्चित् अव्यतिरिक्त-अभिन्न है, अतः द्रव्य के ग्रहण से वह भी गृहीत हो जाता है । अब विशेषों की चर्चा की जाती है । वैशेषिक दर्शन में विशेष नाम का एक पदार्थ माना जाता है । वैशेषिक ऐसा कहते हैं कि द्रव्यादि में विशेष ही अत्यन्त व्यावृत्ति बुद्धि के हेतु है-उस द्वारा
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