________________
श्री समवसरणाध्ययन कि-जो सम्यक्-यथार्थ हेतु है, वह भी तत्त्व के रूप में स्वीकृत नहीं है । फिर हेत्वाभास को तत्त्व मानने की तो बात ही कहां? जो वस्तु नियत है-निश्चित है, वही तत्त्व हो सकती है किन्तु हेतु किसी साध्य वस्तु के प्रति होते हैं और वे ही अन्य वस्तु के प्रति अहेतु बन जाते हैं । अतः वे अनियत
___ अब छल का प्रसंग आता है । अर्थ के विकल्प की उपपत्ति होने से-अर्थ का भेद हो सकने से वादी के वचन का अर्थ का विघात करना-हनन करना उसके अर्थ को परिवर्तित कर देना छल है। वक्ता ने किसी अर्थ विशेष में-किसी विशेष अभिप्राय से शब्द का प्रयोग किया वहां उसके अभीप्सित अर्थ के भिन्न अर्थ की परिकल्पना करना वाक् छल है । जैसे एक वादी कहता है 'नव कम्बलोऽयं देवदत्तः' अर्थात् देवदत्त नूतन कम्बल युक्त है । यहां वक्ता के अभिप्राय के अनुसार इसका 'नवंकम्बलोऽस्य'-इसका कम्बल नया है यह विग्रह होता है । इस प्रसंग में विग्रह में ही विशेषता या भिन्नता है, समास में नहीं है । "नवः कम्बलोऽस्य" इसके पास नौ कम्बल है, छलवादी ऐसी कल्पना करता है । कहता है कि देवदत्त के पास नौ. कम्बल है। यह आपने कहा है किन्तु उसके पास नौ कम्बले नहीं है। अतः आपका कथन युक्ति संगत नहीं है ।
इस संबंध में जैनों का कथन है कि जो वास्तव में नहीं है उसका कथन करना छल है । यदि वह छल है तो तत्त्व नहीं है । यदि वह तत्त्व है तो छल नहीं है । क्योंकि तत्त्वपरमार्थ रूप-सत्य होता है । अतः छल को तत्त्व कहना युक्ति विरुद्ध है।
- दूषणाभास-दोष का भास जाति कहा जाता है । जैनों का कहना है कि जो सही माने में दोष है वह तत्त्व के रूप में व्यवस्थित नहीं होता, तत्त्व नहीं माना जाता क्योंकि वह अनियत होता है । जो एक जगह भली भांति दोष के रूप में विद्यमान है, वही दूसरी जगह दूषणाभास हो जाता है । दूषण एवं दूषणाभास की व्यवस्थिति पुरुष की शक्ति-सामर्थ्य की अपेक्षा रखती है । अतः वह अनियत होती है । वह तत्त्व नहीं है । फिर जाति जो दूषणाभास का रूप लिये हुए है वह तत्त्व कैसे हो सकती है क्योंकि वे तो अवास्तविक है उनका अस्तित्व है नहीं । वाद के समय वादी अथवा प्रतिवादी जिसके द्वारा निगृहीत कर लिये जाते हैं वह निग्रह स्थान कहा जाता है । जैसे यदि वादी अपना ऐसा वचन प्रयोग करे जो उसके साध्य अर्थ को सिद्ध नहीं करता हो और प्रतिवादी उसके दोष को निगृहीत कर ले, तो वादी का निग्रह हो जाता है-वह पकड़ लिया जाता है, यह निग्रह स्थान है । इसके अतिरिक्त न्यायदर्शन में जो अन्य बातें प्रतिपादित हैं वे सब प्रलाप मात्र है । जैसे प्रतिज्ञा, हानि, प्रतिज्ञान्तर तथा प्रतिज्ञा विरोध इत्यादि । यदि चिन्तन किया जाये तो यह निग्रह स्थान नहीं हो सकता । फिर भी यदि इसे निग्रह स्थान कहा जाय तो यह पुरुष की त्रुटि है-दोष है । यह तत्त्व नहीं हो सकता । वक्ता के गुण एवं दोष पदार्थानुभाष में ही अधिकृत किये जाते हैं । वे तत्त्व रूप में निरूपित नहीं होते । इस प्रकार न्याय दर्शन में प्रतिपादित तत्त्व तत्त्वरूप में आश्रित किये जाने योग्य-माने जाने योग्य नहीं है।
वैशेषिकों-वैशेषिक दर्शन में आस्थाशील लोगों द्वारा निरूपित तत्त्व भी तत्त्व के रूप में मानने योग्य नहीं है । उनके अनुसार द्रव्य, गुण, कर्म, सामान्य, विशेष एवं समवाय ये छ: तत्त्व हैं । इनमें पृथ्वी, अपपानी, तेज-अग्नि, वायु, आकाश, काल, दिशा, आत्मा तथा मन ये नौ द्रव्य हैं । इनमें पृथ्वी, पानी, अग्नि तथा वायु को पृथक् पृथक् स्वीकार करना अनुपपन्न-अनुपयुक्त है क्योंकि वे ही परमाणु प्रयोग तथा स्वभाव-प्राकृतिक संयोग से पृथ्वी आदि के रूप में परिणित होते हैं । अतः वे द्रव्यत्व का परित्याग नहीं करते, मात्र अवस्थाओं
(537)